रुलबुक दिखाने वाले ‘ब्रेक’ की तरह

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अगर आप किसी से पूछेंगे कि गाड़ी में ब्रेक क्यों होते हैं, तो वे कहेंगे ‘रोकने के लिए।’ लेकिन जवाब गलत है। क्योंकि गाड़ी में ब्रेक आपको तेजी से ड्राइव करने का आत्मविश्वास देते हैं इसलिए सही जवाब है ‘स्पीड बढ़ाने के लिए।’ आपको अब भी यकीन न हो तो बिना ब्रेक के गाड़ी चलाकर देखिए। फिर देखते हैं, आप कितनी स्पीड से चलाते हैं।

मुझे यह तार्किक सोच तब याद आई जब मुंबई की चौंकाने वाली खबर सुनी। जिस शहर को जागरूक नागरिकों और उच्च जीवनस्तर के लिए जाना जाता है, उसे जबरदस्त धोखा खाना पड़ा। जी हां, हीरानंदानी कॉम्प्लैक्स जैसी पॉश कॉलोनी के सैकड़ों लोग नकली कोविड-19 टीकाकरण ड्राइव का शिकार हो गए। वे सिर्फ पैसे से नहीं लुटे, जो कि छोटी-मोटी रकम नहीं, बल्कि पांच लाख रुपए थे, बल्कि उन्हें एक स्कूल ड्रॉपआउट ने ठग लिया और विडंबना यह है कि पुलिस और डॉक्टर समेत कोई नहीं जानता कि उनके टीके में क्या था। यह दु:खद है।

हम दुआ करते हैं कि वह साधारण सलाइन का पानी हो, कोई नुकसानदेह तत्व नहीं। इस फर्जी टीकाकरण कैंप का मास्टरमाइंड महेंद्र सिंह (39) एक दशक तक मेडीकल एसोसिएशन में क्लर्क रहा था। उसे शुक्रवार को मुंबई पुलिस ने उसके तीन सहयोगियों संग गिरफ्तार किया।

इस स्कूल ड्रॉपआउट ने एसोसिएशन में रहते हुए सभी मेडीकल प्रेक्टिस सीख लीं और हाई-प्रोफाइल सोसायटी के लोगों के सामने ऐसा ताम-झाम बनाया कि वे शायद शानदार व्यवस्था से प्रभावित हो गए। दु:खद यह है कि किसी ने सबसे आधारभूत चीज, टीका और उनकी प्रमाणिकता नहीं जांची।

आपको नहीं लगता कि यह संभव है कि नियमों की किताब (रूलबुक) से चलने वाले किसी सदस्य, जिसे प्रबंधन समिति परेशान करने वाला मानती होगी, ने कैम्प पर सवाल उठाए होंगे? हो सकता है। उन्होंने आयोजक से हस्ताक्षर वाले दस्तावेज मांगे होंगे, लेकिन उन्हें झिड़क दिया होगा। यकीन मानिए जांच में जल्द ऐसी दिलचस्प कहानियां निकलेंगी। लेकिन कई लोग फैसले लेते समय रूलबुक के ‘कीड़ों’ को नजरअंदाज करते हैं।

मैंने उन्हें सकारात्मक रूप में कीड़ा कहा है क्योंकि वे न सिर्फ नियम पढ़ते हैं, बल्कि उसे कीड़े की तरह चाट जाते हैं और गलती होने पर हमेशा मदद के लिए तैयार रहते हैं। इसलिए वे हर उस कोऑपरेटिव सोसायटी के लिए ब्रेक की तरह हैं, जो जल्दबाजी में रहती है।

मैं रूलबुक में यकीन रखने वाले कई लोगों को जानता हूं और उनमें एक हैं माधव गोठोस्कर। जब 1973 में वे बतौर अंपायर कानपुर में अपने पहले टेस्ट मैच में खड़े थे, उन्हें इंग्लैंड के कप्तान टोनी लुईस ने सब्सटीट्यूशन नियम को लेकर चुनौती दी। उन्होंने तुरंत ही टोनी को नियम सुना दिया। टोनी मान गए कि बहस का कोई फायदा नहीं है।

आज 92 वर्ष की उम्र में गोठोस्कर वैसे ही हैं और क्रिकेट से जुड़ा सिर्फ एक सबस्टीट्यूट नियम नहीं, बल्कि पूरे 42 नियम और 300 उपनियम सुनाने तैयार हैं। इस बुधवार जब पुणे में क्रिकेटरों के एक फाउंडेशन ने उनका सम्मान किया तो उन्होंने 1973 की घटना सुनाई। अपने 11 वर्ष के कॅरिअर में गोठोस्कर ने विभिन्न बल्लेबाजों के 23 टेस्ट शतक देखे। आज भी उन्हें न सिर्फ शतक बनाने वाले हर बल्लेबाज का नाम याद है, बल्कि कई मामलों में एक-एक ओवर की जानकारी है।

फंडा यह है कि आस-पास हमेशा ऐसे लोग रखें जो आपको रूलबुक दिखाते रहें योंकि वे आपकी प्रगति में ब्रेक नहीं लगाते, बल्कि तेज गति से जाने में मदद करते हैं। जिंदगियों में चहल-पहल लानी होगी: पिछले हते जब मैं देश की बिरयानी राजधानी हैदराबाद गया था, मैंने देखा कि कैसे होटल चलाने वाले, वीडियो मीटिंग्स, लॉकडाउन बर्थडे और एनिवर्सरी डिनर को लेकर उत्साहित थे और विभिन्न पतों पर खाना भेज रहे थे। उन्होंने बहुत अच्छे से दम बिरयानी को उसी मिट्टी के बर्तन में पैक किया था, जिसमें दम दिया था और उसे सिंगल, फैमिली पैक और पार्टी पैक के रूप में भेज रहे थे।

कोविड-19 की दूसरी लहर से प्रभावित होने के बाद वे मील मुझे बिजनेस मीटिंग तक में जश्न की तरह लग रहे थे, क्योकि इस साल मीटिंग भी मुश्किल रही हैं। मेरे सामने स्क्रीन पर विजयवाड़ा, विशाखापक्नम और काकिनाडा के लोग भी वही बिरयानी खा रहे थे जो मैं हैदराबाद में खा रहा था। लंच पर मीटिंग में चर्चा का विषय था कि कैसे कोरोना ने 16 महीनों में हमें ‘मोबिलिटी-डिसेबल्ड’ (चलने-फिरने में असमर्थ) बना दिया।

मेरे मन में विचार आया कि इस अस्थायी असमर्थता ने सामान्य लोगों को इतना परेशान किया तो उनकी स्थिति या होती होगी जो स्थायी दिव्यांग हैं। इसीलिए मैं महाराष्ट्र में नासिक के केआरटी आर्ट बीएच कॉमर्स एंड एएम साइंस (केटीएचएम) कॉलेज की सराहना करता हूं, जिसे अंगूर के शहर के बाहर कम ही जानते हैं लेकिन दिव्यांग छात्रों में 2006 से मुफ्त शिक्षा देने के लिए यह मशहूर है। इस जगह न सिर्फ सीढिय़ां चढऩे में असमर्थ लोगों के लिए रैंप हैं, बल्कि जरूरतमंद छात्रों के लिए व्हीलचेयर, सफेद छड़ी, सुनने की मशीन आदि भी मिलती हैं।

दृष्टिहीन छात्रों के लिए विशेष कप्यूटर लैब, ‘जॉज़’ जैसे स्क्रीन रीडिंग सॉफ्टवेयर और ऐसा ऐप है जो ढेर सारा डेटा स्टोर कर छात्रों के लिए पढ़ता है। कॉलेज ने पढऩे में मदद करने वाले सॉफ्टवेयर के लिए दक्षिण कोरियाई संगठन से अनुबंध किया है। न सिर्फ वे उपकरण देते हैं, बल्कि छात्रों की विभिन्न स्रोतों से छात्रवृक्ति पाने में मदद भी करते हैं। जब तक छात्रों की नौकरी न लग जाए, वे देशभर के रित पदों की जानकारी भेजते रहते हैं। कॉलेज पूर्व छात्रों के नेटवर्क के जरिए लगभग सभी दिव्यांग छात्रों को नौकरी दिला देता है।

वैभव पुराणिक का उदाहरण देखें जो स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में डिप्टी मैनेजर हैं। जब उनके पिता गुजरे और मां की प्राइवेट सेटर की नौकरी चली गई तो उन्हें न सिर्फ मुफ्त शिक्षा दी गई, बल्कि उनकी मां को भी गैर-शिक्षण श्रेणी में नौकरी दी गई। कॉलेज ने दृष्टिहीन छात्रों के लिए स्क्रीन रीडिंग सॉफ्टवेयर लगाया है, ऐसा शायद नासिक में पहली बार हुआ है। सीखते हुए कमाने की योजना के तहत कॉलेज ने वैभव को दिन में दो घंटे के लिए एक छात्र दिया था। वैभव के पास कप्यूटर नहीं था, इसलिए उसने कॉलेज में बैंक परीक्षा की तैयारी की।

कॉलेज ने उन्हें आंतरिक परीक्षा बाद में देने की अनुमति दी योंकि उसकी तारीख बैंक की परीक्षा से टकरा रही थी। हैरानी नहीं कि वैभव और उन जैसे लोग कॉलेज के ताउम्र अहसानमंद हैं। फिलहाल कॉलेज सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय से मान्यता प्राप्त है और यहां 11वीं कक्षा से पीएचडी तक के 119 दिव्यांग छात्र पढ़ रहे हैं। हम निश्चित रूप से उनकी मदद करते रहें जिनकी जिंदगी मौजूदा हालातों से प्रभावित हुई है। लेकिन याद रखें कि यह अस्थायी है। कभी न कभी कोरोना जाएगा। उनके लिए भी अच्छा काम करते रहें, जिनकी जिंदगी में चहलपहल स्थायी रूप से प्रभावित है यानी जिनकी जिंदगी में स्थायी लॉकडाउन है।

एन. रघुरामन
(लेखक मैनेजमेंट गुरु हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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