आशंकित नायिका

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मुफ्त की स्कीमों की बाजार में नित नई बहार आई रहती है, त्योहारों के अवसर पर यह बहार मानों बाद में तब्दील हो जाती है, इस बाढ़ से बचने की भले ही कोई लाख कोशिश करे, परंतु अच्छे खासे तैराक तक उसमें बह जाते हैं। लोभी स्वभाव वाले लोगों का मानना है कि मुफ्त के माल का मजा ही कुछ और होता है, जबकि आशंकित स्वभाव वालों का मानना है कि मुफ्त का ऑफर पंछी को जाल में फंसाने के लिए फेंके गए दाने की मानिंद होता है। बारह मासी मुफ्तखोरों का मानना है कि मुफ्त का माल भले ही काट के मुंह में जीरे जितना हो, किंतु उसका स्वाद किसी रसगुल्ले से कुछ कम नहीं होता है।

आपने वह गीत तो सुना ही होगा, जिसमें हैरान परेशान एक नायिका बारबार शिकायत कर रही है कि-हाय हाय एक लड़का मुझको खत लिखता है, लिखता है, हाय मुफ्त में ले-ले तू मेरा दिल बिकता है! नायक के इस मुफ्त के ऑफर से नायिका आशंकित है। दिल जैसी चीज तो या इस जमाने में मुफ्त का कोई भी ऑफर किसी को भी आशंकित कर सकता है। भला आज के समय में बिना वजह भी कोई किसी को मुफ्त का ऑफर देता है। मुफ्त की खबरें बहुधा सरकारी विज्ञापनों के पहियों पर सवार होकर चली आती हैं। पिछले दिनों भी एक खबर आई थी कि गरीबों को कुछ महीनों तक मुट्ठी भर अनाज मुफ्त में मिलेगा। दरअसल चुनाव नजदीक आते ही मुफ्त की फसल की बुआई शुरू हो जाती है तथा चुनाव के बाद का समय मुफ्त की फसल काटने का होता है, चुनाव के सीजन में मुफ्त की फसल भरपूर उतरती है।

आजकल मुफ्त बांटने वालों में जैसे मुफ्त बांटने की होड़ सी लगी हुई है, एक उत्साही नेता ने तो मुफ्त कफन योजना तक की घोषणा कर डाली। वैसे पुराने जमाने से ही मुफ्त बांटने की परंपरा चली आई है, कई नामी डकैत तक अमीरों से लूटे गए माल को गरीबों में मुफ्त बांट देते थे। विकास के इस नए दौर में जिस मुफ्त की पकी रसोई के एक भंडारे से नेता की सीट तक पकी हो जाती हो उस मुफ्त की महिमा का बखान शब्दों में करना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। कहते हैं मुफ्त बांटने वालों के हाथों में गजब की बरकत होती है, मुफ्त बांटने के लिए उन्हें न तो अपनी जेब में हाथ डालना पड़ता है और न ही उनके गिरह का कुछ जाता है।

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