एक कौवा, एक ट्रंप और खत्म अमेरिका!

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उफ! देश की ऐसी तबाही! न्यूयॉर्क, लंदन, पेरिस के तमाम विचारवान विश्व के सर्वाधिक ज्ञानवान, सच्चे लोकतंत्र की बरबादी से गमगीन हैं। स्वतंत्रचेता लोगों की मशाल के बुझने की चिंता है। सिर्फ साढ़े तीन साल उस्तरा लिए एक लंगूर और ढाई सौ साल पुराना लोकतंत्र ओबीच्युरी की और। राष्ट्र-राज्य, कौम, सभ्यता, लोकतंत्र को एक कौवा, एक व्यक्ति कैसे जर्जर, कलुषित, काला बना देता है, यह डोनाल्ड ट्रंप के इक्कीसवीं सदी का दहलाने वाला सत्य है। 29 सितंबर 2020 की रात अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप और जो बाइडेन की टीवी पर जो बहस हुई उसे अमेरिका में राष्ट्रीय कलंक बताया जा रहा है। बहस ज्योंहि खत्म हुई अधिकांश टीकाकारों, बौद्धिकों, वैश्विक मीडिया ने कहा, लिखा कि शर्म से डूब मरना चाहिए। यह अमेरिकी इतिहास का राष्ट्रीय शर्म दिवस है। दुनिया और भविष्य के इतिहासकार भी ऐसा ही मानेंगे और शायद रोएं भी। यदि ट्रंप वापिस राष्ट्रपति निर्वाचित हुए तो यह अमेरिका की ओबीच्युरी में प्रारंभ बिंदु होगा

वाक्य लंदन के एक प्रतिष्ठित अखबार के स्तंभकार का है। मैंने भी बुधवार तड़के बहस देखी। मैं देखते हुए सोच रहा था कि डोनाल्ड ट्रंप आदत अनुसार कौवे की कांव-कांव में झूठ बोलते जा रहे हैं और उनके प्रतिद्वंद्वी डेमोक्रेटिक पार्टी के बाइडेन बेचारे ट्रंप की टोका-टोकी के बावजूद जैसे भी हो जवाब दे रहे हैं तो जवाब में क्योंकि दम है इसलिए अपने आप लोग उन्हें बहस में जीता हुआ मानेंगे। यह तो ठीक बहस है। लेकिन ज्योंहि बहस खत्म हुई तो सीएनएन के तमाम एंकर प्रतिक्रिया देते मिले कि इतनी छिछली, ऐसी शर्मनाक डिबेट उन्होंने कभी नहीं देखी-सुनी। यह राष्ट्रपति चुनाव की बहस है या राष्ट्रीय शर्म है।

अब मैंने अमेरिका के पूर्व चुनावों की बहस को न तो इतना याद रखा हुआ है और न मेरे लिए इतने दूर के देश की राष्ट्रीय बहसों का तुलनात्मक विश्लेषण संभव है। फिर सीएनएन चैनल ट्रंप के पीछे हाथ धो कर पड़ा हुआ है। इसलिए मैंने फिर ट्रंप भक्त फॉक्स न्यूज और तटस्थ सीबीएस सहित न्यूयॉर्क टाइम्स, वाशिंगटन पोस्ट, लंदन के द गार्जियन के आकलन पर सरसरी निगाहों से गौर किया तो यह निष्कर्ष सर्वमान्य मिला कि सन् 2020 के राष्ट्रपति चुनाव की बहस वैसी नहीं थी जैसे उम्मीद थी और जैसे पिछले चुनावों की बहस का स्तर रहा है। बहस का ‘घटिया’ ‘शिटचैट’ होना डोनाल्ड ट्रंप की कांव-कांव से है।

अमेरिका में चुनाव मर्यादाओं में होते हैं। बहस में लोग एक-दूसरे को टोकते नहीं हैं। संसद या मीडिया की बहस में, पक्ष-विपक्ष, मतभिन्नता में वैसा कुछ नहीं होता है, जैसा भारत में होता है। अमेरिका-ब्रिटेन की संसद में कल्पना ही संभव नहीं है जो विधेयक बिना बहस-सुनवाई के कानून बन जाए या स्पीकर विपक्ष के मत विभाजन की मांग को अनसुना करके अपने ईर्द-गिर्द सिक्योरिटी गार्ड का घेरा बना ध्वनि मत से वैसे बिल पास करवाए, जैसे पिछले दिनों अपनी राज्यसभा में हुआ था। तभी अमेरिका में राष्ट्रपति उम्मीदवारों की पहली बहस के बाद यह रूदाली है कि यह राष्ट्रीय शर्म का दिन है। रोने का दिन है और अमेरिका के खत्म होने का प्रारंभ है। उस कौम का ऐसा सोचना इस तथ्य का प्रमाण है कि अमेरिका की महानता उसका लोकतंत्र व लोगों की लोकतांत्रिक तासीर है, जिस पर ट्रंप की कांव-कांव से कालिख पुती है।

इससे शायद यह भी संभव है कि अमेरिका के मतदाता समझ जाएं कि डोनाल्ड ट्रंप से अमेरिका कितना बरबाद है और उनका लोकतंत्र कैसा हो गया है! बहस से जो दिखा, सुनाई दिया उसका अर्थ है कि यदि कोई जरा भी राष्ट्रपति लायक है तो वह मौजूदा राष्ट्रपति तो लकतई नहीं है। ट्रंप ने उज्जड़ता-मूर्खता दिखाई, टोका-टाकी की, विरोधी को बोलने के मौके में बाधा डाली, तेवर के साथ, झूठ उड़ेला और सबसे बड़ी बात न उन्होंने गोरों की वर्चस्वता वाले नस्लवाद की निंदा की और न चुनाव प्रक्रिया, नतीजा स्वीकारने की सहमति दी। ध्यान रहे इस बहस के मॉडरेटर ट्रंप की चहेती फ़ॉक्स न्यूज चैनल के क्राइस वैलेस थे जो राष्ट्रपति की टोका-टोकी के आगे लाचार दिखे। यों वे राष्ट्रपति को यह कहने से अपने को रोक नहीं पाए कि आप ज्यादा टोका-टोकी कर रहे हैं। वे ट्रंप को सयंत करने में असमर्थ थे। तभी जो बाइडेन ने अपने जवाब दौरान ट्रंप को दो टूक शब्दों में चेताया- “तुम चुप रहोगे। बाइडेन यह कहने से भी नहीं चूके कि “अमेरिका में जितने भी राष्ट्रपति हुए है उसमें आप सर्वाधिक सत्यानाशी है”। “तथ्य यह है कि ये जो भी बोलते है वह झूठ होता है”। …. “मैं यहां इनके झूठ का जवाब देने के लिए नहीं हूं”। ..“दुनिया जानती है कि ये झूठे हैं”। …“माफ कीजिए यह व्यक्ति-इस जोकर के साथ बात कर सकना भी मुश्किल है”।

दरअसल 2016 में डोनाल्ड ट्रंप अपनी प्रतिद्वंद्वी हिलेरी क्लिंटन और डेमोक्रेटिक राष्ट्रपति ओबामा के प्रशासन के खिलाफ झूठ के बड़बोलेपन से जैसे हावी हुए थे वहीं रणनीति इस बहस में थी। यह सोचते हुए कि बुजुर्ग और सौम्य स्वभाव वाले बाइडेन उनके आगे क्या बोल पाएंगे। वे भूले गए कि उनके राष्ट्रपति होने का लोग अनुभव ले चुके हैं। वायरस, आर्थिकी और अमेरिका की वैश्विक प्रतिष्ठा में गिरावट में हर अमेरिकी उनसे लफ्फाजी नहीं, बल्कि यह सुनना चाहता है कि उनकी कमान में अमेरिका कैसे ग्रेट बना है जो वे बार-बार अमेरिका को ग्रेट बनाने, अपने ग्रेट, अपने प्रशासन के ग्रेट होने की बात कर रहे हैं।

अपना मानना है पहली बहस से डोनाल्ड ट्रंप की असलियत का अमेरिकियों में और पर्दाफाश हुआ। उनके विरोधी राष्ट्रपति उम्मीदवार जो बाइडेन चमत्कारी, करिशमाई, लफ्फाजी के बाजीगर नहीं हैं मगर वे जो हैं वह ट्रंप के आगे बतौर कंट्रास्ट यह भरोसा है कि यदि उन्हें मतादाताओं ने मौका दिया तो अमेरिका बच जाएगा अन्यथा समाज-आर्थिक-व्यवस्था में अमेरिका न केवल विभाजित होगा, बल्कि कलह, गृहयुद्ध, लोकतंत्र के खत्म होने का रास्ता निश्चित है।

तभी बहस कायदे से न होने का ठीकरा डोनाल्ड ट्रंप पर फूटा है। बहस बाद बहस के विजेता जो बाइडेन हैं। लगभग सभी सर्वेक्षणों में बाइडेन की वाहवाही है। एक सर्वे में दस में से छह लोगों ने बाइडेन को ठीक बताया। ट्रंप को ठीक बताने वाले सिर्फ 28 प्रतिशत थे। 65 प्रतिशत लोगों ने बाइडेन को सच बोलने वाला बताया तो 29 प्रतिशत लोगों ने ट्रंप को। सीबीएस के सर्वे के अनुसार 48 प्रतिशत लोगों ने बाइडेन को और 41 प्रतिशत ने ट्रंप को जीता बताया। दस प्रतिशत ने बराबरी का प्रदर्शन बताया। दस में से आठ मतदाताओं ने कहा बहस का स्तर ठीक नहीं था। बहस के निगेटिव होने से वे निराश और गुस्से में थे। बहस के बाद डेमोक्रेटिक पार्टी के समर्थकों में से 92 प्रतिशत में बाइडेन के प्रति विश्वास दिखा वहीं रिपब्लिकन पार्टी के लोगों में 82 प्रतिशत ने ट्रंप को जीता हुआ माना। कुल मिला कर बहस से बाइडेन की राष्ट्रीय और अपनी पार्टी के भीतर रेटिंग बढ़ी है जबकि ट्रंप को लेकर रिपब्लिकन पार्टी में मतभेद, विभाजन जस का तस है।

बाइडेन उम्मीदवार बनने के बाद से राष्ट्रीय स्तर पर ट्रंप के मुकाबले में लगातार सात-आठ प्रतिशत आगे हैं। इस बहस से बाइडेन की बढ़त जस की तस रहते हुए भी पुख्ता बनेगी। चुनाव नतीजों का दारोमदार अब आगे की दो बहस और अनिश्चय में चले आ रहे 9-10 प्रतिशत मतदाताओं पर है। अपना मानना है कि पहली बहस में छिछली टोका-टोकी और बाइडेन के बेटे को बहस में लपेटे में लेने, लड़ाकू गोरों की भर्त्सना में कोताही से लेकर मतदान व नतीजों पर डोनाल्ड ट्रंप का जैसा जो रूख रहा उसकी अमेरिकियों में उनका ग्राफ नहीं बढ़ सकता। ट्रंप के जो वोट हैं वे हैं लेकिन तटस्थ और रिपब्लिकन पार्टी के समझदार मतदाताओं में बाइडेन के दमदारी से बहस में जवाब देने का असर होगा। यदि ऐसे ही अगली दो बहस हुई तो अमेरिका अपनी ओबीच्युरी लिखे जाने की और बढ़ने से शायद बच जाए। ऐसा होना पूरी मानवता और मेरे जैसे लोकतंत्री मिजाजी सनातनी हिंदू के लिए जीवन-मरण की बात है। अमेरिका काले कौवों के सरदार डोनाल्ड ट्रंप की कांव-कांव से मुक्त हो, यह पृथ्वी की मनुष्य जात की पहली जरूरत है। कोविड का टीका जब आए तब आए उससे पहले दुनिया डोनाल्ड ट्रंप से मुक्ति पाए ताकि दुनिया समझदारी से आगे बढ़ सके और राक्षसी नेताओं की मनमानी रूके।

हरिशंकर व्यास
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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