भ्रष्टाचार का रोना ना रोओ

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बांकेलाल बात ही ऐसी बोले कि मुझे लगा उनका दिमाग फिर गया है। । बांकेलाल जी हां, वे सुबह-सुबह आए और बोले कि इधर से उधर तक और जा ऊपर से लेकर नीचे तक हर तरफ भ्रष्टाचार ने पैर पसार लिए हैं। मैं हका.बका रह गया। भला यह भी कोई बात हुई कि आज के जमाने में कोई भ्रष्टाचार की शिकायत करें! जमाना जानता है कि अब भ्रष्टाचार भ्रष्टाचार नहीं रहा, अपितु उसका के परिवर्तन हो गया है। इस चिडिय़ा को बिठाए बिना कोई भी देव अपने स्थान से टस से मस नहीं होता। सीधे कहा जाए तो भ्रष्टाचार एक शिष्टाचार के रूप में परिवर्तित हो चुका है। वैसे भी अब काफी हद तक भ्रष्टाचार चर्चा के विषय से बाहर हो चुका है। सौजन्य से सभी प्रसन्न रहते हैं, इस युति के अनुसार लेने और देने वाले दोनों ही पक्षकारों के लिए वह लाभ का सौदा सिद्ध होता है।

यही कारण है कि सामान्य कार्य व्यवहार में ध्वनिमत से ही नहीं अपितु सर्वसम्मति के आधार पर भ्रष्टाचार को शिष्टाचार के रूप में आत्मसात कर लिया गया है। मेरे लिए आशय का विषय यह रहा कि आज के जमाने में भी ऐसे शस है जो भ्रष्टाचार को लेकर आकुल-व्याकुल हो जाते हैं। जैसे अब बांकेलाल को ही देखोए जब उनका ऊंट पहाड़ के नीचे आया, तब जाकर उन्हें पता लगा कि जमान उनके दौर से बहुत आगे तक कुलांचे भर चुका है। हालांकि वह सच है कि जिनके आचार विचार और व्यवहार में सतयुग की छाप हुआ करती है, उनके लिए आज के दौर में सांस लेना भी दुष्कर होता है। अब उन्हें कौन बताए कि संसार में सुकून से जीने के लिए समय की धारा के प्रवाह के अनुरूप चलना होता है।

इस संबंध में मेरा व्यतिगत रूप से मानना है कि जो लकीर के फकीर हुआ करते हैं, वे भ्रष्टाचार को कोसते हुए कुड़ते रहा करते हैं। यह ध्रुव सत्य है कि भ्रष्टाचार को भ्रष्टाचार ही बचा सकता है। तरकी की रफ्तार में वही शसियत आगे जा सकती है जो समय की धारा के प्रवाह के अनुरूप अपनी मानसिकता बनाए हुए होती है। खैर, बांकेलाल मुझसे यह अपेक्षा रखते थे कि मैं भ्रष्टाचार के विरुद्ध अपनी कलम का कमाल दिखाऊं। माफ कीजिए। लेकिन बांकेलाल नहीं जानते थे कि आज के दौर में किसी भी कलमकार के लिए भ्रष्टाचार पर कलम चलाना उसके लेखन की मौलिकता पर प्रश्नचिन्ह लगाता है।

राजेंद्र बज

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