राजनीति में बेदाग रहना चुनौती

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काजल की कोठरी में कैसों ही सयानो हो जाय एक लीक काजल की लगे है तो लागे है। कहावत आज के राजनैतिक दौर में बेदागी के मामले में एकदम सत्य साबित हो गई है। उभरते नव राष्ट्रवाद के युग में काजल रूपी राजनीति में बेदाग बने रहना अखंड भारत में एक चुनौती के समान हो गई है। आजकल कोई भी व्यक्ति अगर दोनों आंखे बंद करके जिस भी राजनेता की तरफ उंगली उठाएंगे, वह नेता प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से किसी न किसी आरोप में सलिप्त जरूर होगा। हाल ही में पूर्व गृहमंत्री पी. चिदंबरम का कथित भ्रष्ठाचार के मामले में सीबीआई की हिरासत में होना क्या संविधान के साथ खिलवाड़ नहीं है? हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा, शरद पवार, राज ठाकरे, प्रफुल्ल पटेल और पक्ष-विपक्ष के अनगिनत नेता गले तक भ्रष्टाचार में फंसे है।

हकीकत ये भी है कि सीबीआई तथा ईडी विपक्ष की तरफ से आवाज उठाने वाले नेताओं पर अधिक कड़क रहती है। जिसके चलते अधिकांशतः विपक्षी दल के भ्रष्ट नेता सत्ता पक्ष का दामन थाम कर एक सुकून की राहत महशूस कर रहे हैं, इससे सत्ता पक्ष के प्रति एक संशय का माहौल इस सत्ता पक्ष के प्रति एक संशय का माहौल इस राजनीतिक पटल पर व्याप्त हो गया है। नतीजा कई सजग युवा सांसद तथा प्रशासनिक अधिकारी अपनी आवाज बुलंद नहीं कर पा रहे हैं, केरल के अधिकारी का इस्तीफा इसका उदाहरण है।

वैसे भी दागी सांसदों की संख्या दिन प्रति दिन बढ़ती जा रही है। सत्र 2014 में लगभग 24 फीसदी संसद दागी थे जो 2019 में बढ़कर लगभग 40 फीसदी हो गए है। सदन में लगभग 146 सासंदों ने अपने हलफनामे में खुद को आरोपित दर्शाया है। जब ये आलम होगा तो ऐसे प्रतिनिधियों से कैसे किसी को न्याय मिल सकता है? विचारणीय तथ्य यह है कि आरोपित सांसदों को सदन तक पहुंचाने का काम जनता ने भी बखूबी निभाया है। इस कैंसर रूपी महामारी से मुक्ति मिलने पर ही हमारा लोकतंत्र पवित एवं सशक्त बन सकेगा।

सत्ता की चौड़ी गलियों में दागी, अपराधी एवं चापलूस जनों की अधिकता होना देश की गरिमा पर कही न कही सवासिया निशान उठ सकते हैं। नेता कभी किसी कारखाने में पैदा नहीं किये जाते हैं बल्कि वो समाज से ही निकलते हैं। शिक्षा भी राजनीति में बेदाग बने रहने में अहम योदगान रखती है। शिक्षा ही एक ऐसी कड़ी है जो राजनीति में समस्त विषाक्त तत्वों को जड़ से उखाड़ सकी है तथा बेदाग बने रहने की चुनौती को आसान कर सकती है। शिक्षा के रास्ते से ही मतदाताओं को इतना जागरूक बनाजा जा सकता है कि वे खुद ही आपराधिक छवि वाले उम्मीदवारों को नकार दें, तो क्या सरकार इस दिशा में प्रयास करेगी?

सुमित बोरा शुक्ला
लेकख स्तंभकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

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