किसकी हिम्मत है जो कहे कि भाई, अठन्नी तो छोड़ो!

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धंधा तो वही चंगा, जिसमें बिकने वाली चीज कोई छू ही न सके। बगैर छुए मुंहमांगी कीमत देने को ग्राहक राजी हो तो ऐसे धंधे से चोखा कोई दूसरा धंधा हो ही नहीं सकता। ग्राहक करेला हाथ में लेता है, टटोलता है। करेला गरमी खा गया है तो ग्राहक उसे नहीं खाएगा। फिर वह बैंगन पर हाथ फेरता है, ठंडी सांस भरता है, उठाकर तराजू में रख देता है और कहाता है कि पच्चीस नहीं, बीस देंगे। लेकिन यूपी में बिजली का दान बढ़ने वाला है। है किसी की मजाल कि छूकर, टटोलकर देख ले और कहे कि भाई-बाप, सात रुपया नहीं, पांच ही दे पाऊंगा! बिजली का धंधा चोखा है। मैंने सोचा है कि रिटारमेंट के बाद नीचे मछली और ऊपर सन-बिजली उगाऊंगा। तब तक हमारी जेब काटकर यूपी सरकार भी इतनी धनी हो चुकी होगी कि मुझे आराम से सब्सिडी दे ही देगी।

वैसे नहीं भी देगी तो क्या हुआ? एक साउथ इंडियन फिल्म में मैंने देखा है कि विदेश से लौटकर रजनीकांत कैसे अपना मेडिकल कॉलेज बनवाता है। फिल्म में उसके एक मामा थे, मेरे भी एक ही हैं। ऐसी चीजे, जिसे कोई छू सकता हो, उसे बेचने के दो ही तरीके हो सकते हैं। पहला तो चीन वाला है, जिसमें ग्राहक कहे कि पचीस नहीं बीस देंगे तो आप कहिए कि बीस नहीं, पंद्रह ही दे दो, मगर माल तो लो। लेकिन हम चीन नहीं हैं। हम चाऊमीन खाते हैं, जो चीन में कहीं नहीं मिलता। एक तो मरा मौसम, फिर मंहगी बिजली, यूरिया-डीजल-मजदूरी अलग से। तिस पर बीधा भर बैंगन अगस बीस रुपया किलो भी नहीं बिका तो नंगा नहाएगा क्या और निचोड़ेगा क्या? वैसे भी अब नहाने या निचोड़ने के लिए अपने पास बस पसीना ही बचा है क्योंकि पानी तो गया तेल बनने। दूसपा तरीका है अमेरिका वाला। न खुदा से मिलो, न विसाल ए सनम का कोई चक्कार। इधर के न रहो और उधर के हुए तो तुम्हारी खैर नहीं। कवि कह रहा है कि अमेरिका का हुक्म है- सिर्फ उसी से मिलो, उसी की ओर रहो। छुओ या न छुओं टेंट ढीली करते रहो। इसी में तुम्हारी भलाई है, वरना बाकी जो है वह तो मानवाधिकारों का उल्लंघन है, जिनकी रक्षा जु़ड़ा ईश्वर का हुक्मनामा उसके पास है।

राहुल पांडेय
लेखक पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

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