कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने संशोधित नागरिकता कानून पर विचार के लिए विपक्षी पार्टियों की बैठक बुलाई थी। लोकसभा चुनाव के बाद एकाध मौकों पर विपक्षी पार्टियों ने एकता दिखाने का प्रयास किया पर यह पहला बड़ा प्रयास था, जो बहुत कामयाब नहीं हुआ। विपक्षी पार्टियों की बैठक की बजाए यह मोटे तौर पर विस्तारित यूपीए की बैठक बन कर गई। इसमें यूपीए की पार्टियां और उनके अलावा लेफ्ट पार्टियों के नेता शामिल हुए। ध्यान रहे लेफ्ट की पार्टियां भी विस्तारित यूपीए का ही हिस्सा हैं। आखिर पश्चिम बंगाल में कांग्रेस उनके साथ तालमेल करके चुनाव लड़ चुकी है और अगले साल मई में होने वाले विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस व लेफ्ट मोर्चा मिल कर ही लड़ेगा। नागरिकता कानून पर केरल में कांग्रेस और लेफ्ट मोर्चा साझा प्रदर्शन कर चुके हैं। सो, सोनिया गांधी की बुलाई बैठक को विपक्ष की बजाय यूपीए की ही बैठक माननी चाहिए।
इसमें एनसीपी के नेता शामिल हुए, जिनके साथ कांग्रेस महाराष्ट्र में सरकार में शामिल है और जेएमएम के नेता शामिल हुए, जिनके साथ कांग्रेस झारखंड की सरकार में शामिल है। डीएमके और राजद भी पिछले काफी समय से यूपीएका स्थायी हिस्सा हैं। इसलिए इनके शामिल होने का भी कोई बड़ा राजनीतिक मतलब नहीं बनता है। अगर कांग्रेस सचमुच नागरिकता कानून के मसले पर देश भर में आंदोलन खड़ा करना चाहती है क्या सरकार को जवाबदेह बनाना चाहती है तो उसे यूपीए की बजाय वास्तविक विपक्ष को एकजुट करना होगा। हैरानी की बात है कि, जो पार्टियां खुल कर नागरिकता कानून और प्रस्तावित एनआरसी के खिलाफ आंदोलन कर रही हैं वे भी कांग्रेस के साथ नहीं जुड़ रही हैं। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस नागरिकता मामले पर सबसे ज्यादा मुखर है और सबसे आक्रामक आंदोलन कर रही है पर ममता बनर्जी ने सोनिया की बुलाई बैठक में शामिल होने से इनकार कर दिया।
ऐसे ही पूर्वोत्तर में इस कानून का बहुत ज्यादा विरोध हो रहा है पर पूर्वोत्तर की पार्टियों को एकजुट करने का कोई प्रयास कांग्रेस नहीं कर रही है क्या यूं कहें कि कांग्रेस के पास कोई मेकानिज्म नहीं है कि वह पूर्वोत्तर के नेताओं को अपने प्लेटफार्म पर ले आए। पूर्वोत्तर में एकजुटता बनाने के प्रयास के तहत कांग्रेस के नेता तरुण गोगोई ने एक बचकाना प्रस्ताव राज्य के मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल को यह दे दिया कि वे भाजपा छोड़ दें और बाकी पार्टियों के समर्थन से मुख्यमंत्री बने रहें। हाल के दिनों में इससे बचकाना राजनीतिक कदम दूसरे देखने को नहीं मिला है। ऑल असम स्टूडेंट यूनियन, आसू के साथ तालमेल बनाने, यूपीए छोड़ कर भाजपा से जुड़े मेघालय के मुख्यमंत्री कोनरेड संगमा को अपने साथ जोडऩे या पूर्वोत्तर के दूसरे नेताओं को साथ लेने का प्रयास करने की बजाय गोगोई भाजपा को तोडऩे के बेकार प्रयास कर रहे हैं। यह हकीकत है कि देश में विपक्षी राजनीति का मूड बन रहा है। तभी महाराष्ट्र में विपक्षी एकजुटता बनी और राज्य के लोगों ने इसे स्वीकार भी किया है। झारखंड में विपक्षी गठबंधन को राज्य के लोगों ने बड़ी जीत दिलाई। दूसरे कई राज्यों में भाजपा विरोधी पार्टियां मजबूत हुई हैं।
तेलंगाना में चंद्रशेखर राव की पार्टी टीआरएस, आंध्र प्रदेश में जगन मोहन रेड्डी की पार्टी वाईएसआर कांग्रेस, पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की पार्टी टीएमसी और उत्तर प्रदेश में मायावती की पार्टी बसपा का रुख सरकार विरोध का है। इनमें से तीन पार्टियां तो सरकार में हैं। कांग्रेस की ओर इस बात का सांस्थायिक प्रयास होना चाहिए कि भाजपा विरोधी पार्टियों को एक मंच पर लाया जाए। सोचें, कुछ समय पहले तक विपक्ष की ओर से एकजुटता बनाने का प्रयास टीडीपी नेता चंद्रबाबू नायडू किया करते थे पर अब उनके साथ कांग्रेस के नेताओं का संपर्क नहीं है। उनको भाजपा के साथ जाने के लिए छोड़ दिया गया है। असल में कांग्रेस को चाहिए कि वह विपक्ष के बड़े नेताओं के साथ लंबे समय की राजनीति को लेकर बात करे। मुद्दा आधारित एकजुटता की बजाय स्थायी एकजुटता के बारे में बात होनी चाहिए। इसका एक ढांचा बनना चाहिए, जो यूपीए से अलग हो और उससे बड़ा हो। यूपीए को बनाए रखते हुए भी एक दूसरा विपक्षी संगठन बनाया जा सकता है, जिसका मकसद चुनाव लडऩा नहीं हो, बल्कि आम लोगों से जुड़े मुद्दों पर विपक्ष को साथ रखने का हो।
सुशांत कुमार
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं )