पेगासस: सरकार जवाब यों नहीं देती?

0
227

इइजराइली कंपनी पेगासस के मालवेयर से भारत में जासूसी हुई, ये खबर दो साल पहले भी ब्रेक हुई थी। तब बताया गया था कि इस मालवेयर के जरिए व्हाट्सऐप की गोपनीयता को तोड़ा गया। अब सामने आया है कि फोन में जो भी डेटा हो, सब तक पहुंच बनाई गई। पेगासस कंपनी का कहना है कि वह इस सॉफ्टवेयर को सिर्फ सरकारों को बेचती है, ताकि वे राष्ट्रीय सुरक्षा के इंतजामों को पुता बना सकें। सरकार के घोषित बजट में इस खर्च का कोई ब्योरा नहीं है, इसलिए यह मानने का आधार बनता है कि ये खरीदारी भारत की खुफिया एजेंसियों के जरिए की गई। ये बात हम सभी जानते हैं कि भारत में खुफिया एजेंसियों की कोई लोकतांत्रिक जवाबदेही नहीं है। उन्हें कितना बजट दिया जाता है, यह हमेशा गुप्त रहता है। तो असल मुद्दा यह उठता है कि इस हाल में किसी व्यक्ति की निजता और लोकतांत्रिक पैमानों की पवित्रता की सुरक्षा कैसे सुनिश्चित की जा सकती है? जहां तक लोकतांत्रिक पैमानों का सवाल है, तो उसमें एक यह है कि चुनावों के दौरान पक्ष और विपक्ष को समान धरातल मिले।

हालांकि कई दूसरे कारणों से भी हाल के वर्षों में ये धरातल टूट गया है, लेकिन इस मामले ने एक बार फिर इस सवाल को उठाया है। अब अगर सत्ता पक्ष को विपक्ष की रणनीतियों का भान हो, तो जाहिर है, मुकाबला बराबरी का नहीं रह जाएगा। 1970 के दशक में ऐसा ही मामला अमेरिका में हुआ था, जिसे वाटरगेट कांड के नाम से जाना जाता है। वो मामला इतना उछला था कि निक्सन को इस्तीफा देना पड़ा था। क्या भारत में आज यह सोचा भी जा सकता है कि पेगासस मामले में जवाबदेही तय होगी? बहराहल, बात फिर से खुफिया एजेंसियों पर आती है, जिन्होंने अपने आकाओं के निर्देश पर ये काम किया होगा। तो क्या यह विचारणीय नहीं है कि स्वस्थ लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम करने के लिए अब इन एजेंसियों को संसद के प्रति जवाबदेह बनाया जाए? हैरानी की बात ये भी है कि इस मामले में विपक्षी पार्टियां केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह का इस्तीफा मांग रही हैं। जांच कराने की मांग समझ में आती है लेकिन अमित शाह के इस्तीफे की बात की कोई तुक नहीं है।

ऐसा इसलिए क्योंकि जिस समय पेगासस से जासूसी हुई है उस समय तो अमित शाह गृह मंत्री थे ही नहीं। अमित शाह तो 2019 की मई में गृह मंत्री बने हैं, जबकि जासूसी का मामला 2018-19 का है। यानी उनके गृह मंत्री बनने से एक साल से ज्यादा पहले से जासूसी का काम चल रहा था। तो क्या उस समय के गृह मंत्री राजनाथ सिंह की जानकारी में यह जासूसी का कांड हुआ है? इस पर भी किसी को यकीन नहीं है क्योंकि राजनाथ सिंह इस तरह के काम कराने वाले नेता नहीं हैं और दूसरे सरकार के सुरक्षा मामलों के सेटअप में वे ऐसी स्थिति में नहीं थे कि किसी विदेशी एजेंसी से इस तरह के काम करा सकें। हैरान होने की बात तो ये भी है कि सरकार से जुड़े या सरकार का समर्थन करने वाले अनेक लोगों के नाम भी इस हैंकिंग की सूची में शामिल हैं।

क्या यह किसी रणनीति के तहत किया गया ताकि यह आरोप न लगे कि सिर्फ सरकार विरोधियों की जासूसी हुई है? सरकार में शामिल जिन लोगों की जासूसी होने की खबर है वे लगभग सभी मौजूदा नेतृत्व के बहुत करीबी लोग हैं। हैकिंग की सूची के मुताबिक स्मृति ईरानी के एक सहयोगी का नंबर उसमें है। इसी तरह मौजूदा रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव का भी नाम इस सूची में है। इसी तरह संस्कृति मंत्री प्रहलाद सिंह पटेल का नाम इस सूची में है। इसका भी मतलब समझ में नहीं आता है क्योंकि वे न राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े किसी मंत्रालय में हैं और न राजनीतिक रूप से बहुत हेवीवेट हैं। सरकारी लोगों में वसुंधरा राजे के सहयोगी का नाम सूची में होना जरूर समझ में आता है। उसके राजनीतिक कारण होंगे। तभी सवाल है कि क्या इन नामों को किसी रणनीति के तहत सूची में रखा गया है ताकि ध्यान भटकाया जा सके?

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here