पर्यावरण के काम का पता तो चले

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सन 1896 में रॉयल स्वीडिश सोसाइटी में एक शोधपत्र प्रस्तुत हुआ। वैज्ञानिक स्वॉन्टन अरिहंटस ने यह मुद्दा उठाया कि विकास की तमाम गतिविधियों के कारण तापक्रम में अंतर आ रहा है। उनका इशारा कार्बन उत्सर्जन की ओर था जो ब्रिटेन में तेज हुई विकास प्रक्रिया का परिणाम था। इससे स्पष्ट होता है कि जब औद्योगिक क्रांति ने अपने पैर पसारने शुरू किए थे, तभी यह चेतावनी भी आ गई थी कि यह क्रांति आने वाले समय में घातक सिद्ध हो सकती है। इसके बावजूद, हम बचाव में कुछ खास नहीं कर सके।

आज पारिस्थितिकी परिवर्तन किस हद तक पहुंच चुका है, यह सबके सामने है। हमारी मौजूदा विकास प्रक्रिया के कारण हवा, जंगल, मिट्टी, पानी पर सीधा आघात हुआ है। जीवन के लिए अनिवार्य प्राण वायु वैश्विक स्तर पर 2019 में 409.8 पीपीएम वैल्यू तक पहुंच चुकी है। यह घातक स्तर है। यह दुनिया में 8 लाख साल में सबसे बड़ी बढ़ोतरी मानी जा रही है। करीब 50 करोड़ वर्ष पहले यह वैल्यू 9 हजार पीपीएम थी। तब पृथ्वी पर हालात विकट थे। यह वह समय था जब पृथ्वी में बड़ी हलचल हुई थी। ज्वालामुखियों से तमाम तरह की गैस निकलकर वातावरण को जीवन के अयोग्य बनाती थी। बाद में धीरे-धीरे पृथ्वी के हालात सुधरे और जीवन के अनुकूल माहौल बना। जीवन के विकास के क्रम में मनुष्य आया। और, जब यह दुनिया को अपने हिसाब से चलाने की स्थिति में आया तो पृथ्वी एक बार फिर खतरे में पड़ती दिखाई देने लगी।

औद्योगिक क्रांति के बाद सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) जैसे सूचक की जरूरत महसूस होने लगी। सवाल यह था कि विकास संबंधी कोई भी गतिविधि हो, उसे आर्थिक संदर्भ में कैसे आंका जाए। इसी सवाल का हल तलाशने की प्रक्रिया में जीडीपी ने अपने लिए महत्वपूर्ण जगह बनाई। पूरी दुनिया में किसी भी देश या राज्य की आर्थिकी का आकलन करना हो तो जीडीपी का ही सहारा लिया जाता है। यह इस हद तक महत्वपूर्ण हो चुकी है कि हमारी तमाम तरह की गतिविधियां, चाहे वह किसी भी क्षेत्र से जुड़ी हों, किसी न किसी रूप में जीडीपी मूल्यांकन के दायरे में आती हैं। बावजूद इसके, जीडीपी बिगड़ती परिस्थितिकी का कोई भी अंदाजा नहीं देती।

बहरहाल, औद्योगिक क्रांति की शुरुआत के पीछे रोजगार और आर्थिकी को बढ़ावा देने की तीव्र जरूरत की भूमिका को अनदेखा नहीं किया जा सकता। वह मनुष्य समाज की उस समय की सबसे बड़ी चुनौती थी। लेकिन आज प्रकृति और पर्यावरण के विनाश के दुष्परिणामों के मद्देनजर पारिस्थितिकी को बचाना हमारी सबसे बड़ी चुनौती बन चुका है। ऐसे में जरूरी है कि हम एक और सूचक की तैयारी करें जिसके जरिए हवा, मिट्टी, जंगल और पानी के हालात का भी नियमित रूप से आंकलन किया जाए। प्रकृति के इन चारो महत्वपूर्ण कारकों को मिला कर सकल पर्यावरण उत्पाद (जीईपी) का एक ऐसा मानक तैयार किया जा सकता है जो कालांतर में पारिस्थितिकी को बचाने का एक सशक्त साधन साबित होगा।

इसी सोच के तहत पिछले एक दशक से चलाई जा रही तीव्र बहस के बाद उत्तराखंड सरकार ने सकल पर्यावरण उत्पाद (जीईपी) को अपनाने की घोषणा की है। वह ऐसा करने वाली दुनिया की पहली सरकार है। जैसे हर साल यह बताया जाता है कि राज्य ने कितनी आर्थिक प्रगति की, वैसे ही अब नियमित रूप से यह भी बताया जाएगा कि राज्य में जंगल, पानी, मिट्टी और हवा की मात्रा में कितनी वृद्धि हुई। इस वृद्धि को भी जीडीपी में शामिल किया जाएगा।

दुनिया में पारिस्थितिकी वृद्धि को रिकॉर्ड करने का यह अपने आप में अनूठा उदाहरण होगा। अगर इस प्रयोग को सही ढंग से अमल में लाया गया और इससे निकलने वाले आंकड़ों को गंभीरता से लेते हुए उसके अनुरूप नीति बनाई गई तो यकीनन हम जान के साथ जहान भी बचाने का एक मार्ग प्रशस्त करेंगे। जाहिर है, अब भी कई किंतु-परंतु हैं, लेकिन फिलहाल तो जरूरत यह है कि उत्तराखंड के इस फैसले को राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार करके लागू किया जाए ताकि अन्य देश भी इसके लिए प्रेरित हों।

अनिल पी जोशी
(लेखक पर्यावरणविद हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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