हैदराबाद की डॉक्टर बिटिया की दरिंदगी के बाद हत्या से पूरा देश आक्रोश में है। संसद से लेकर सड़क तक एक ही सवाल अब और निर्भया नहीं। सरकार ने भी भरोसा दिलाया है कि एक्ट में बदलाव करेंगे। मौजूदा कानून को पहले से और सख्त बनाया जाएगा। इसी बात को लेकर दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष स्वाति मालीवाल आमरण अनशन पर बैठ गई है। जंतर-मंतर आधी आबादी की सुरक्षा के सवालों को लेकर उमड़े आक्रोश का एक बार फिर गवाह बन रहा है। यूपीए-2 में निर्भया कांड के बाद इसी तरह से आम लोगों का धीरज टूटा था। पुलिस की भूमिका पर सवाल उठाना जायज है। इस तरह के मामले देश के किसी ना किसी हिस्से में आए दिन होते हैं। यूपी में एक नवोदय विद्यालय की 11वीं की छात्रा के साथ बलात्कार का मामला सामने आया है। लडक़ी हॉस्टल परिसर में फंदे से लटकी हुई मिली थी। ठीक है इस मामले में पहले एसपी और अब डीएम को हटा दिया गया है। क्या इतने मात्र से किसी बदलाव की उम्मीद की जा सकती है, शायद नहीं।
महिला असुरक्षा का सवाल अहम है लेकिन इसका समाधान मात्र कानून को सख्त किए जाने से हो जाएगा यह खुद को मुगालते में रखने जैसी बात है। पुलिस तंत्र के भीतर भी जवाबदेही की कमी इस कदर है कि आम लोगों की शिकायतों पर ध्यान देने के बजाय सिर्फ वीआईपी की खुशामदगी में उसकी सारी ऊर्जा खर्च होती रहती है। हां, मामला सुर्खियों में आने पर जरूर पुलिस का सारा कौशल जाग उठता है। निर्भया कांड में जागा था अब दिशा कांड में जाग रहा है। शुरू आत में भले ही पुलिस वाले सीमा विवाद की आड़ में डॉक्टर बिटिया के परिवारजनों को टरकाते रहे हों, पर मामला गरम होने के बाद किस तरह आरोपियों तक पहुंच गए यह सर्वविदित है। यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है ऐसे जघन्य काण्ड थम नहीं रहे। सोचिए, दुष्कर्म के मामलों में 1973 में 44.3 फीसदी लोगों को सजा हुई थी। 1983 में घटकर यह दर 37.7 हो गई और 2016 में यह 25.5 फीसदी रह गई। सजा होने की दर के लगातार घटते जाने से ऐसी मानसिकता के लोगों में खौफ पैदा नहीं हो पा रहे।
मामले इसलिए भी लगातार बढ़ते जा रहे हैं। सगत कानून के साथ उसका असर जमीन पर दिखे भी, इसके लिए न्याय तंत्र के भीतर की पेचीदगियों को सुलझाए जाने की जरूरत है। यह चिंताजनक तो है ही कि इस दौर में एक तरफ आधी आबादी हर क्षेत्र में एक नया इतिहास रच रही है, देश का माथा ऊंचा कर रही है। दूसरी तहफ ज्यादातर बच्चियों, युवतियों को खौफ के साये में जीने को विवश होना पड़े तो यह हमारे समाज के लिए अभिशाप जैसा है। समय के संकेत को समझने की जरूरत है। परिवार और समाज के तौर पर लैंगिक संवेदनशीलता और समझदारी को मजबूत बनाए जाने की जरूरत है। यह संकट के तौर पर जितना कानूनविदों, रखवालों के चुनौतीपूर्ण है, उतना ही समाजशास्त्रियों के लिए भी। परिवार में भी प्रारंभ से बच्चों को लैंगिक सामंजस्य और एक -दूसरे को समझने का संस्कार दिये जाने की जरूरत है। लैंगिक श्रेष्ठता नहीं, समन्वयता का पाठ बचपन से जब बच्चों के आमरण का हिस्सा बनेगा, तब ही लैंगिक समानता का परिवेश आकार लाएगा सिर्फ कानून के डंडे से समाधान तक नहीं पहुंचा जा सकता।