ऐसा लग रहा है कि राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ, भारतीय जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी ने पिछले 90 साल से ज्यादा समय से जिन मुद्दों को अपनाया और राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विमर्श का हिस्सा बनाया है, उनको सुलझाने का वक्त आ गया है। पर ये सारे मुद्दे भारतीय जनता पार्टी की पूर्ण बहुमत वाली सरकार नहीं सुलझाएगी, बल्कि अदालत सुलझाएगी। एक एक करके सारे मुद्दे अदालत में पहुंच गए हैं।
ताजा मामला जम्मू कश्मीर में लागू अनुच्छेद 370 को हटाने का है। इस बारे में भाजपा के एक नेता अश्विनी उपाध्याय ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है और सर्वोच्च अदालत इस पर विचार के लिए तैयार हो गई है। इसमें कहा गया है कि इस कानून की वजह से संसद को जम्मू कश्मीर के बारे में कानून बनाने में मुश्किल आती है, जिससे राज्य का विकास बाधित होता है। जब इस पर विचार होगा तब और भी कई तकनीकी पहलू खुलेंगे। 10 जुलाई को जिस समय सुप्रीम कोर्ट में यह याचिका दायर की गई लगभग उसी समय केंद्रीय गृह राज्य मंत्री जी किशन रेड्डी ने संसद में कहा कि सरकार अपनी मर्जी से अनुच्छेद 370 हटाएगी, इसमें किसी बाहरी ताकत का कोई दखल नहीं होगा।
अनुच्छेद 370 पर चल रही बहस और अदालत में दाखिल गई याचिका को देख कर लग रहा है कि सरकार की बजाय फैसला अदालत करेगी। कश्मीर से जुड़े एक और अनुच्छेद 35ए का मामला भी सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। इसी तरह अयोध्या में राम जन्मभूमि, बाबरी मस्जिद विवाद भी सुप्रीम कोर्ट में ही है। कुछ समय पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक के मसले पर फैसला सुनाया, जिसके बाद सरकार कानून बनाने में लगी है। इसे समान नागरिक संहिता की दिशा में उठाया गया अहम कदम माना जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट में जाने वाला अगला मामला जनसंख्या नियंत्रण का हो सकता है।
आरएसएस, जनसंघ और भाजपा के एजेंडे में जम्मू कश्मीर संभवतः सबसे प्रमुख मुद्दा रहा है। भारतीय जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी एक देश, एक विधान, एक निशान का मुद्दा लेकर आगे बढ़े थे और जम्मू कश्मीर में रहस्यमय स्थितियों में उनका निधन हो गया था। भाजपा सरकार उनके निधन की जांच करा सकती है। खैर वह अलग मसला है। कश्मीर को लेकर दो ग्रंथि है, एक अनुच्छेद 370 और दूसरा अनुच्छेद 35ए। इन दोनों को हटाने का मुद्दा सुप्रीम कोर्ट में लंबित है।
अनुच्छेद 35ए के मामले में अदालत में कुछ कार्रवाई हुई है तो 370 का मामला अभी ताजा ताजा सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा है। इससे पहले केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह कह चुके हैं कि अनुच्छेद 370 को हटाने के लिए संसद की मंजूरी जरूरी नहीं है। इसका मतलब है कि सुप्रीम कोर्ट के सामने संसद के विशेषाधिकार का मामला आड़े नहीं आएगा। 35ए तो वैसे भी संविधान में बाद में राष्ट्रपति के एक कार्यकारी आदेश के जरिए जोड़ा गया था। इसलिए इसे हटाना को और भी आसान है। तभी माना जा रहा है कि अदालत अगर सीधे इन दोनों अनुच्छेदों को हटाती नहीं है तब भी वह कुछ ऐसा निर्देश दे सकती है, जिससे सरकार के लिए यह काम आसान हो जाएगा।
दूसरा मुद्दा अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण का है। राम मंदिर, बाबरी मस्जिद के जमीन विवाद का मुद्दा दशकों से अदालत में लंबित है। पर अब यह सुप्रीम कोर्ट में पहुंच गया है और अदालत ने इसे सुलझाने की पहल कर दी है। कानूनी हल निकालने से पहले अदालत ने मध्यस्थता के जरिए इसका सर्वमान्य हल निकालने का प्रयास किया है। तीन सदस्यों की मध्यस्थता समिति इस दौर की बैठकों की रिपोर्ट अदालत को दे चुकी है और अदालत ने उसे 15 अगस्त तक का समय दिया है।
अगर मध्यस्थता के जरिए मामला हल होता है तो ठीक नहीं तो सुप्रीम कोर्ट जमीन विवाद का निपटारा करेगी। इससे पहले इलाहाबाद हाई कोर्ट ने विवादित जमीन को तीन हिस्से में बांटने का फैसला सुनाया था। बहुमत के फैसले में निर्मोही अखाड़ा, रामलला और सुन्नी वक्फ बोर्ड को बराबर बराबर जमीन देने को कहा गया था। इसे सभी पक्षों ने करीब आठ साल पहले सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद जरूरी हुआ तो सरकार भी कुछ पहल करेगी।
संघ और भाजपा के एजेंडे में राम मंदिर और अनुच्छेद 370 के बाद सबसे अहम मुद्दा समान नागरिक संहिता का है। भाजपा चाहती है कि सबके लिए एक जैसा कानून बने। पर इस दिशा में भी वह अपने से कोई पहल नहीं कर रही है। सुप्रीम कोर्ट ने ही एक साथ तीन तलाक बोलने को अवैध और असंवैधानिक घोषित कर दिया। इसके बाद सरकार सक्रिय हुई और उसने अध्यादेश के जरिए कानून बना दिया कि एक साथ तीन तलाक बोलना संज्ञेय अपराध होगा और ऐसा करने वालों को सजा हो जाएगी। हालांकि इसका बिल संसद में लंबित है।
सरकार तीन तलाक और निकाह हलाला को खत्म करने को मुद्दा बना रही है। यह समान नागरिक संहिता की दिशा में उठा पहला कदम है। इससे जुड़े कुछ और मुद्दे अदालत में पहुंच सकते हैं।
अदालत के निर्देश पर ही इस मामले में भी सरकार आगे बढ़ेगी। संवेदनशील मामलों में सरकार अगर खुद फैसला करती है तो समाज में उसका विरोध हो सकता है पर अदालती फैसलों को स्वीकार करने का चलन रहा है। संभवतः इसी वजह से सरकार खुद फैसला करने की बजाय अदालत के फैसले के इंतजार में है।
अजीत कुमार
लेखक पत्रकार हैं और ये उनके निजी विचार हैं