श्रमिक स्पेशल का चलना बंद हो गया और इसे प्रवासी मजदूरों के ‘रिवर्स माइग्रेशन’ का औपचारिक अंत माना जा सकता है। ऐसे में इस कहानी को हमें भुलाना तो नहीं है, लेकिन यहां याद करने का भी कोई लाभ नहीं है कि यह रिवर्स माइग्रेशन अर्थात मजदूरों की घर वापसी कैसी और कितनी मुश्किलों से भरी थी। वैसे इस वापसी में एक कहानी बहुत चर्चित हुई कि दिल्ली के पास के एक मशरूम फार्म के मजदूरों को चार्टर्ड प्लेन से बिहार भेजा गया था। आज दनादन चार्टर्ड फ्लाइट से मजदूरों को वापस लाने का खेल शुरू हो गया है। दो गुनी मजदूरी पर काम देने, गाड़ियां कैंसिल कराकर उन्हें रोकने, बड़े-बड़े वायदों से उनको लुभाने के प्रयास दिख रहे हैं। भरोसा कहां है हालांकि अभी धान की रोपनी शुरू होने से मजदूरों को अपने गांव में ही काम उपलब्ध हैं। इसके अलावा अभी-अभी घर लौटे मजदूर कोरोना के चलते वापस लौटने में झिझक भी रहे हैं। साथ ही जिस सरकार ने लॉकडाउन घोषित करते समय प्रवासी मजदूरों को भुला दिया था, वही पचास हजार करोड़ रुपये की नई रोजगार योजना लेकर आई है और उसी ने मनरेगा का बजट भी बढ़ा दिया है।
ऐसे में यह सवाल प्रमुख हो गया है कि मजदूर वापस क्यों आ रहे हैं। जिनको इतना कष्ट हुआ, जो घर जाने के लिए इतने बेचैन थे, वे वापस क्यों आने लगे? तब यह सवाल था कि आखिर मजदूर शहरों को छोड़ अपने गांवों की ओर क्यों भागे। जितना आसान उस सवाल का जवाब था, उतना ही आसान इस सवाल का जवाब है। मजदूरों को आज भी सरकार, शासन व्यवस्था, इसके बनाए कायदे कानून और कथित समाज सेवी संस्थाओं से ज्यादा अपने गांव, परिवार और समाज पर भरोसा है। तभी वे सबसे गहरे संकट का अनुभव करने पर जान पर खेलकर गांव की तरफ भाग चले थे। लेकिन मौजूदा व्यवस्था में, विकास के इस मॉडल में खेती, छोटी जोत, एकाध पशुओं को पालने या छोटे-छोटे काम वाले हुनर से जीवन चलाने के लिए गांव पर्याप्त नहीं रह गए हैं। अध्ययन बताते हैं कि छोटी जोत और एकाध पशुओं को घर में ही साथ रखने वाली अर्थव्यवस्था आज चलने की स्थिति में नहीं है। इसी के चलते खेती, पशुपालन और ग्रामीण हस्तशिल्पों को छोड़कर शहरों की तरफ भागने वालों का रेला बढ़ता जा रहा है।
कभी ट्रैफिक की लाल बत्ती पर गजरा और छोटी-छोटी चीजें बेचने वालों या करतब दिखा रहे उनके बच्चों से पूछिए तो पता लगेगा कि वे ज्यादातर बुनकर परिवारों से हैं, जिनका काम भूमंडलीकरण के दौर में चौपट हुआ है। अब, उनके आने के कारण बहुत हैं लेकिन आज इस कोरोना काल के राहत पैकेज के जरिए सरकार इस महाप्रवृत्ति को रोकने के लिए जो कुछ कह और कर रही है, उसके बारे में यही कहना पर्याप्त है कि सरकार को न तो समस्या का अंदाजा है, न समाधान का और न उसके परिणाम का। यह ठीक उसी तरह का मामला है जैसे लॉकडाउन घोषित करते समय अंदाजा ही नहीं था कि देश में कुल कितने प्रवासी मजदूर हैं और उनका क्या होगा। अगर आज देश की बड़ी कंपनियां और समृद्ध प्रदेश मजदूरों को वापस लाने के अभियान में जुटे हैं, सभी पार्टियों के नेता मजदूरों को रोकने के समर्थक हैं (कर्नाटक में तो विपक्षी कांग्रेस पार्टी के लोग ही गाड़ियां रद्द कराने और मजदूरों को रोकने में आगे थे) तो वे सब बौराए हुए नहीं हैं। ऐसा भी नहीं कि उनको मोदी, योगी, नीतीश और सोनिया की हाल की बातों की परवाह नहीं है।
उन्हें पता है कि इन लोगों की परवाह से ज्यादा बड़ी चीज मजदूरों का आना और कामकाज शुरू करना है, वरना इस विकास की गाड़ी बैठ जाएगी। मजदूरों का चाहे जितना अनादर हो, अर्थव्यवस्था की गाड़ी उनके बगैर नहीं चलने वाली। आप पूंजी के आगे चाहे जितना झुक जाओ या लेट जाओ, गाड़ी का दूसरा पहिया तो मजदूर ही हैं। जो लोग इस अवसर का लाभ लेकर एक विकेंद्रित अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने और मनरेगा जैसी योजनाओं से मजदूरों का पलायन रोकने की बात कर रहे हैं, उनमें से कुछ की मंशा अच्छी हो सकती है, पर ज्यादातर राजनीतिक रूप से चालाक लोग हैं। वे वोट की राजनीति कर रहे हैं, बिहार और फिर बंगाल के चुनाव पर नजर गड़ाए हैं। जिनकी मंशा अच्छी है, वे भोले भंडारी ही कहे जाएंगे क्योंकि उनको न तो समस्या का अंदाजा है और न समाधान का। आज देश में चालीस करोड़ से ज्यादा लोग इंटर स्टेट माइग्रेशन वाले हैं, अर्थात अपने राज्य से बाहर गए हैं। इनमें शादी के चलते प्रदेश छोड़ने वाली लड़कियां, पढ़ाई के लिए निकले बच्चे/बच्चियां और अच्छी नौकरी व कारोबार वाले लोग भी शामिल हैं।
लेकिन सिर्फ रोजगार, परिवार का पेट पालने और बाल-बच्चों का भरण-पोषण करने वाले भी पचीस करोड़ से कम नहीं हैं। जाहिर है, इनके पुनर्वास और रोजगार का जहां तक सवाल है तो न पचास हजार करोड़ की नई योजनाओं से काम चलेगा और न ही मनरेगा का बजट बढ़ाने से। ग्रामीण सड़क और परिवहन के काम में कुछ लोगों को कर्ज पर गाड़ियां दिला देने से भी यह मसला नहीं सुलझने वाला। स्मार्ट गांव चाहिए मसला सुलझेगा गांव, खेती, पशुपालन, ग्रामीण हुनर और आधुनिक विकास के मेल से। मामला सुलझेगा बड़े प्रॉजेक्ट, बड़ी-बड़ी मशीनों, बड़े-बड़े शहरों के विकास की दिशा बदलने और स्मार्ट शहर की जगह स्मार्ट गांव बनाने से। यह काम बिना ज्यादा पूंजी के भी लोगों के श्रम, हुनर और स्थानीय संसाधनों के कुशल प्रबंधन से संभव है। पैसों से ज्यादा बड़ी जरूरत है इच्छा शक्ति की, पर उसी का अभाव है। आज की केंद्र सरकार या राज्य सरकारों में कोई भी इस दिशा में सोचता या करता हुआ नहीं लगता। सो स्वाभाविक है कि मजदूरों को वापस लाने वाली गाड़ियों और बसों में भीड़ उमड़ेगी और बड़ी-बड़ी कंपनियां चार्टर्ड प्लेन से ही सही, मजदूरों को वापस लाने का इंतजाम करेंगी।
अरविन्द मोहन
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)