सुशांत केस : सियासत सफल ना हो

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संत केशवानंद भारती, जिनका अभी निधन हुआ है, ने आपातकाल के पहले इंदिरा सरकार की असंवैधानिकता के खिलाफ लंबा संघर्ष किया था। उस ऐतिहासिक मामले में 47 साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने कानून के शासन को संविधान की मूलभूत संरचना बताया था। चुनाव जीतने के लिए नेता कोई भी हथकंडे अपनाएं। उसके बाद राज्य और केंद्र सरकार में मंत्रियों को विधि द्वारा स्थापित व्यवस्था से देश को मजबूत करने की संवैधानिक शपथ लेनी ही पड़ती है। रिया चक्रवर्ती और कंगना रनोट मामलों में केंद्र और राज्य की सरकारी एजेंसियां जैसी कार्रवाई कर रही हैं, उससे क़ानून के शासन की संवैधानिक शपथ बेमानी हो रही है। सुशांत की बहन के खिलाफ एफआईआर दर्ज होने पर उनके वकील ने मुंबई में बांद्रा के पुलिस थाने को रिया का दूसरा घर बता दिया। तो मुंबई को पीओके कहने वाली कंगना को केंद्र सरकार से वाई सुरक्षा दे दी। ऐसी तगड़ी सुरक्षा देश के बड़े मंत्रियों को ही मिली है। कंगना की सुरक्षा के लिए करणी सेना जैसे नए हरावल दस्ते आ रहे हैं। राजनेताओं द्वारा पोषित अवैध निजी सेनाएं, पुलिस व सरकारों की सामूहिक असफलता का शर्मनाक प्रमाण हैं।

शिवसेना और भाजपा दोनों ने मिलकर 30 साल तक राजनीतिक गलबहियां की हैं। उसके बाद अब देश की वित्तीय राजधानी मुंबई को यदि पीओके कहा जा रहा है, तो फिर उसके लिए किसे जिमेदार माना जाए? हर साल मानसून में मुंबई के लोग बीएमसी के भ्रष्टाचार और नकारेपन को कोसते हैं, फिर भी शिवसेना की नींद नहीं खुलती। बॉबे हाईकोर्ट ने कोरोना और लॉकडाउन के कहर को देखते हुए 30 सितंबर तक तोडफ़ोड़ नहीं करने का निर्देश दिया था। लेकिन सियासत का 20-20 मैच जीतने के जुनून में बीएमसी अधिकारियों ने कंगना के ऑफिस के अवैध निर्माण को आनन-फानन में तोड़ दिया। रिया और कंगना से जुड़े दोनों मामलों में पहले टारगेट सेट हो रहे हैं, फिर कार्रवाई के लिए वजह और क़ानून खोजे जा रहे हैं। सुशांत के पिता ने बिहार में जो एफआईआर दर्ज कराई थी, उसमें हत्या की साजिश और पैसों के गबन के आरोप थे। इन दोनों मुद्दों पर सीबीआई और ईडी फिलहाल मामला नहीं बना पाईं, तो फिर एनसीबी ने वॉट्सएप चैट के आधार पर ही रिया को गिरफ्तार करने का करतब दिखा दिया।

कानून के नाम पर चल रही इस खाप पंचायत का मीडिया चैनलों और सोशल मीडिया से अनवरत प्रसारण हो रहा है। इससे आम जनता के मन में यह बात घर कर गई है कि सरकारी इशारे पर राज्य व केंद्र के अफसर किसी भी टारगेट को कानून के नाम पर नेस्तनाबूत कर सकते हैं। तीन साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फैसले में जाति, धर्म, वर्ग, क्षेत्र आदि के नाम पर वोट मांगने वाले नेताओं का चुनाव रद्द करने के लिए चुनाव आयोग को अधिकार दिया था। लेकिन इन सारे कायदे, कानून और अदालती फैसलों को लागू करने के लिए सरकार की इच्छाशति सिर्फ रिया और कंगना जैसे मामलों में ही दिखती है। आम जनता को कानून का पाठ पढ़ाने वाले राजनेताओं ने खुद को कानून से ऊपर होने का कंबल बेशर्मी से ओढ़ लिया है।

अर्थव्यवस्था में त्राहि-त्राहि और चीन के साथ संकट के इस नाजुक दौर में फिल्म स्टारों की मसालेदार कहानियों से जनता को बहकाने में सभी दलों के नेताओं का फायदा है। दूसरी तरफ रिया और कंगना के नाम पर आईटी सेलों द्वारा प्रायोजित हैशटैग से विदेशी कंपनियां भारत में लंबा मुनाफा काट रही हैं। आम जनता और सरकारों का ध्यान आंदोलन, गप और विवादों में उलझा रहे, इसके लिए फेक और हेट न्यूज के अभियानों को नाटकीय तरीके से बढ़ाया जा रहा है। फर्जी टीआरपी और लाइस से टीवी चैनल और सोशल मीडिया कंपनियां विश्वगुरू भारत के सीने में खंजर भोंकने की पूरी कोशिश कर रही हैं। संविधान में अभिव्यति की आज़ादी है, इसलिए मीडिया के माध्यम से बढ़ाई जा रही इस अराजकता को कानून और अदालतों से रोकना मुश्किल है। यदि सुशांत फॉर्मूले से बिहार और महाराष्ट्र में सियासत सफल हो गई, तो फिर लोकतंत्र की नाव को डूबने से बचाने कौन आएगा?

विराग गुप्ता
(लेखक सुप्रीम कोर्ट के वकील हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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