आज हम बात एक ऐसे इंसान की कर रहे हैं जिसने अपनी कलम की नज्मों से बर्रे-सगीर की फिजा को बदल के रख दिया। बरतानी हुकूमत से जंग-ए-आजादी के मतवालों के इंकलाब जिंदाबाद नारे को गढऩे वाले कोई और नहीं बल्कि खुद मौलाना हसरत मोहानी थे। मोहानी साहब सही मायने में हिंदुस्तान की गंगा जमुनी तहजीब के आलंबरदार थे, उनका शुमार अपने जमाने के कद्दावर सियासतदानों में किया जाता है, ऐसे सियासतदान जिन्होंने पूरी जिंदगी मुल्क-ओ मिल्लत की हिफाजत करने में लगा दी। हर साल 13 मई मोहानी साहब के यौमे वफात के तौर पर याद किया जाता है। हिंदुस्तान की रूह तब तक अधूरी है जब तक इसकी अपनी जुबान उर्दू की गुतगू न हो और उर्दू की दास्तां तब तक अधूरी रहेगी जब तक इसमें हसरत मोहानी साहब का जिक्रन हो। हसरत मोहानी साहब की आमद के बाद हिंदुस्तान की जंग-ए-आजादी उरूज पर पहुंची।
शायर मोहानी साहब अंग्रेज हुकूमत के इतने सख्त मुखालिफ थे कि इन्होंने दूसरे सियासतदानों ने इतर मुकमल आजादी की मांग कर डाली थी जिससे अंग्रेजी हुकूमत की चूल्हें हिल गईं थी। इन्होंने अपनी नज्मों में कभी हिन्दू-मुस्लिम का भेद नहीं किया। अक्सर इनकी कलम से निकले हुए अल्फाज हुकूमतों के साथ साथ फिरकापरस्त ताकतों को भी डरा दिया करते थे। इनकी सोच और तर्बियत में शख्सियत का अहम हिस्सा था जिसकी जानिब से मोहानी साहब ने पूरे मशरिक की कयादत को जगाने का काम किया। मोहानी साहब हिंदुस्तान की तकसीम के बड़े मुखालिफ थे और बड़े भारी मन से इन्होंने हिंदुस्तान के टुकड़े होते देखा। मौलाना साहब ने हिंदुस्तान से मोहब्बत के जज्बे में पाकिस्तान जाना नामंज़ूर कर दिया और हिंदुस्तानी मुसलमानों को यकीनी तौर पर हिंदुस्तान के साथ बने रहने के लिए रजामंद किया। उन्हें याद करना उनको खिराज-ए-अक़ीदत होगी।