महिलाओं की पढ़ाई की लंबी लड़ाई

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देश की स्त्रियों के लिए एक जनवरी 1848 का दिन बहुत अहम है और हमेशा रहेगा। यह वही दिन है जब उनके लिए सावित्रीबाई फुले ने पहला बालिका स्कूल खोला था। स्त्री शिक्षा के लिए किया गया उनका संघर्ष एक मिसाल बन चुका है। अगर पड़ताल की जाए कि सावित्रीबाई सहित तमाम लोगों के संघर्ष का हासिल क्या है, तो निराशा ही हाथ लगेगी। किसी भी देश, जाति या वर्ग में सबसे बड़ा बदलाव शिक्षा से ही आता है लेकिन भारत में आधी आबादी की जिंदगी में बदलाव की गति बहुत धीमी है। इसकी मुख्य वजह तमाम लड़कियों का शिक्षा से वंचित रह जाना है। जाहिर है जब लड़कियां शिक्षा से वंचित होंगी तो तमाम संस्थानों में उनका प्रतिनिधित्व भी कम रह जाएगा।

वजहें तो कई हैंइसी धीमी प्रगति का नतीजा है कि ‘बेटी बचाओ ,बेटी पढ़ाओ’ महज नारा बनकर रह गया है। इसका जमीनी हकीकत से कोई ताल्लुक नहीं है। एक और चिंताजनक बात यह है कि कोविड महामारी और उससे उपजे हालात ने लड़कियों की शिक्षा पर बहुत असर डाला है। महामारी के बाद जो हालात बने हैं उनमें बहुत लड़कियों को अपनी पढ़ाई छोड़नी पड़ गई। ‘राइट टु एजुकेशन’ फोरम ने अंतरराष्ट्रीय शिक्षा दिवस पर कुछ चौंकाने वाले आंकड़े जारी किए हैं। भारत में 15 से 18 साल की लगभग 40 प्रतिशत लड़कियां स्कूल से बाहर हो जाती हैं। कोविड के बाद ऑनलाइन क्लास शुरू होना, लोगों की नौकरियां जाना- इन सबका असर सामाजिक ताने-बाने की वजह से लड़कियों पर ज्यादा पड़ने का अनुमान है।

अगर घर में कई बच्चे हैं तो माता-पिता चाहेंगे कि लड़के की पढ़ाई जारी रहे। निम्न आय वर्ग में समस्या है कि सबके पास फोन या लैपटॉप नहीं है। इसलिए डिजिटल क्लास अटेंड करना इन परिवारों के बच्चों के लिए बहुत मुश्किल साबित हुआ है। तमाम लड़कियों की पढ़ाई छूट जाने की वजह यह भी बन रही है। कुछ के घर में एक ही फोन है तो उससे भाई पढ़ रहा है। लड़का घर से निकलकर कहीं और भी जाकर क्लास कर लेता है। लड़की के लिए ऐसा करना मुश्किल हो रहा है। गांव-कस्बों में बहुत सारी लड़कियों की पढाई इसलिए भी छूट जाती है कि स्कूल तक जाने के लिए उन्हें सुरक्षित माहौल नहीं मिल पाता है। उनके आने-जाने के रास्ते में ही उन्हें इतना तंग किया जाता है कि कभी घबरा कर खुद स्कूल जाना बंद कर देती हैं तो कभी घर वाले पढ़ाई छुड़वा देते हैं। headtopics.com

15 से 18 साल की लड़कियों के पढ़ाई से बाहर होने की तमाम वजहों में एक यह भी है। इसलिए बेटियां को पढ़ाने के लिए पहले हमें उनको सुरक्षित वातावरण देना पड़ेगा। अभी महिला दिवस के चंद रोज पहले अखबार में एक खबर पढ़ी कि कानपुर में एक लड़की ने अपनी बैंक की नौकरी छोड़कर खुद को घर में बंद कर लिया। उसके ऐसा करने की वजह एक लड़का है जो उसे रास्ते में कभी अश्लीलता करके, कभी धमकियां देकर इतना तंग करता था कि वह डिप्रेशन में आ गई और ऐसा कदम उठा लिया। ऐसी खबरें वाकई शर्मनाक तो हैं ही, चिंताजनक भी हैं। जबकि कामकाजी लड़कियों का प्रतिशत विश्व बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 27 है।

विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका- सब जगह स्त्रियों का प्रतिनिधित्व बहुत कम है। जहां स्त्री के हक में कानून बनाया जा सकता है वहां यानी संसद में भी वर्तमान में यह आंकड़ा महज 13 प्रतिशत है। पिछले लोकसभा चुनाव में खड़े हुए 8000 से ज्यादा प्रत्याशियों में स्त्रियों की संख्या 700 से कुछ ऊपर थी। इनमें से 78 स्त्रियां चुनी गईं। सारे राजनीतिक दल महिलाओं के आरक्षण की बात करते हैं लेकिन संसद में स्त्रियों के प्रतिनिधित्व से साफ हो जाता है कि वे इस मामले में कितने गंभीर हैं। इसी तरह जब भी स्त्री से जुड़े किसी मुद्दे पर फैसला आता है तो यह बात अक्सर उठती है कि महिला न्यायाधीश ज्यादा होनी चाहिए। वे शायद ज्यादा संवेदनशीलता से स्त्रियों से जुड़े मामलों को समझ सकती हैं। लेकिन न्यायपालिका में महिलाओं का प्रतिनिधित्व केवल 7.2 प्रतिशत है।

इतने कम प्रतिशत को देखकर ही अटार्नी जनरल के के वेणुगोपाल ने कुछ अर्सा पहले कहा था कि ‘न्यायपालिका में स्त्रियों की संख्या बढ़ने से एक संतुलन बनेगा और यौनिक हिंसा के केस समानुभूति की भावना के साथ हैंडल किए जाएंगे।’ विधायिका और कार्यपालिका के बाद उस अंग की बात करें जहां तमाम नीतियों पर एक्शन लिया जाता है देश की ब्यूरोक्रेसी में स्त्रियों का प्रतिनिधित्व कुछ खास नहीं है। 2019 के एक डेटा के अनुसार केंद्र में सचिव स्तर पर 88 सेक्रेट्री रैंक में सिर्फ 11 महिलाएं हैं। संयुक्त सचिव स्तर पर यह आंकड़ा 19.14 प्रतिशत है। सरकार के सारे अंगों में महिलाओं के कम प्रतिनिधित्व के पीछे सामाजिक संरचना के साथ-साथ स्त्रियों में शिक्षा का प्रसार न होना भी है।

चौड़ी होती खाईजब तक स्त्री शिक्षित होकर वहां तक पहुंच ही नहीं सकेगी जहां से वह अपने साथ ही अन्य स्त्रियों की जिंदगी में भी बदलाव ला सके, तब तक सारी बातें बेमानी हैं। राष्ट्रीय सांख्यिकी संस्थान के एक सर्वे के अनुसार स्त्री और पुरुष साक्षरता में 14 प्रतिशत से ज्यादा का अंतर है। कोविड काल के बाद यह अंतर बढ़ जाने की आशंका जताई जा रही है। यह बात काफी फिक्र करने की है लेकिन सवाल यह है कि इस प्रतिशत को कैसे ठीक किया जाए, यह फिक्र आखिर है किसे? देश के जीडीपी का 4.6 प्रतिशत ही शिक्षा के लिए रखा गया है जबकि हालात देखते हुए इसे बढ़ाया जाना चहिए। लड़कियों की शिक्षा के लिए बजट में अलग से भी कुछ व्यवस्था होनी चहिए। कम से कम इतना तो हर हाल में सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि फीस की वजह से या असुरक्षा के चलते बीच में किसी को पढ़ाई न छोड़नी पड़े। जब यह कहा जाता है कि एक स्त्री को शिक्षित करने का अर्थ है पूरी पीढ़ी को शिक्षित करना, तो इतने महत्वपूर्ण मामले को लेकर कोई गंभीर क्यों नहीं है?

अनीता मिश्रा
(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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