सरकार का तर्क बेदम

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14 सितंबर से संसद के मॉनसून सत्र में इस बार प्रश्न काल नहीं होगा। विपक्ष इसका विरोध कर रहा है। विरोध करना जायज भी है क्योंकि प्रश्न काल संसदीय कार्यवाही का सबसे अहम हिस्सा होता है। सरकार उसे सीमित कर रही है। इसका मतलब है कि वह अपनी जवाबदेही से बचना चाह रही है। इसके बचाव में सरकार व राज्यसभा सचिवालय की ओर से भी जो तर्क दिए जा रहे हैं वो बिना सिर पैर के हैं। प्रश्न काल नहीं चलाने के फैसले का बचाव करते हुए सरकारी पक्ष की ओर से कहा जा रहा है कि कई राज्यों में भी प्रश्न काल नहीं चला है। अगर ऐसा है तो वहां भाजपा को विरोध करना चाहिए था। दूसरा तर्क यह है कि सबसे ज्यादा हंगामा प्रश्न काल में होता है क्योंकि वह सबसे पहले होता है और इस हंगामे की वजह से प्रश्न काल नहीं चल पाता है। सो, अगर एक बार प्रश्न काल नहीं होगा तो या हो जाएगा? यह फालतू का तर्क है योंकि भले प्रश्न काल हंगामे की भेंट चढ़ जाता हो पर सरकार को जवाब तब भी देना होता है। संसद में मंत्रियों को छोड़ कर सभी पार्टियों के सांसद 15 दिन पहले से सवाल लिख कर मंत्रालयों को भेजते हैं और मंत्रालय को जवाब तैयार करना होता है।

सदन में क्या तो मंत्री जवाब देता है और अगर कार्यवाही नहीं चलती है तब भी लिखित जवाब सदन के पटल पर रखना होता है। हंगामा होने के बावजूद सवाल पूछने वालों को जवाब मिल जाता है और पत्रकारों को भी सवाल-जवाब की कॉपी मिल जाती है। इससे खबरें भी बनती हैं। पर प्रश्न काल होगा ही नहीं तो जवाब देने की जवाबदेही भी नहीं होगी। असली चीज वही जवाबदेही है, जिससे सरकार बचना चाह रही है। दिकत ये भी है कि विपक्ष ना मजबूत है और ना ही एक। संसद में खासकर लोकसभा में कांग्रेस के साथ साथ या कांग्रेस से भी ज्यादा तृणमूल कांग्रेस के सांसद सरकार के खिलाफ हमलावर रहते हैं। तृणमूल के पास संसदीय नियमों और विषयों के अच्छे जानकार नेता भी हैं। सुदीप बंदोपाध्याय से लेकर सौगत राय, कल्याण बनर्जी आदि। पर कोरोना वायरस की वजह से पार्टी ने तय किया है कि उसके 65 साल से ज्यादा उम्र के सांसद सदन की कार्यवाही में हिस्सा लेने नहीं जाएंगे। सुदीप बंदोपाध्याय और सौगत राय दोनों इस नियम के कारण सदन की कार्यवाही में हिस्सा नहीं ले सकेंगे। कल्याण बनर्जी जरूर हिस्सा लेंगे पर तृणमूल कांग्रेस के ज्यादातर सांसद, जो सदन की कार्यवाही में हिस्सा लेंगे वे संसदीय मामलों के जानकार नहीं हैं और वे प्रभावी तरीके से सरकार को नहीं घेर सकते हैं। वामपंथी पार्टियों के गिने चुने सांसद हैं, वे जरूर मुखऱ रहेंगे पर उनके साथ तृणमूल का तालमेल नहीं बन पाएगा।

कांग्रेस और लेट की करीबी से तृणमूल नेता नाराज हैं। बीजू जनता दल का परोक्ष और प्रत्यक्ष दोनों समर्थन सरकार के साथ रहता है। डीएमके के पास जरूर पर्याप्त संख्या में सांसद हैं पर वे अपने प्रदेश के मुद्दों से आगे नहीं सोचते हैं। मुश्किल तो यह है कि मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस इस बार दोनों सदनों में पूरी तरह से बिखरी होगी और उसके सहयोगी भी या तो नहीं होंगे या उसके साथ सहयोग नहीं करेंगे। कांग्रेस पार्टी ने उन मुद्दों की सूची बनाई है, जिस पर उसे सरकार का विरोध करना है। पार्टी ने तय किया है कि वह पीएम-केयर्स के चंदे को कर मुक्त करने का विरोध करना है। इसके अलावा सांसद निधि पर रोक लगाने, दिवालिया संहिता में बदलाव करने या किसानों की फसल की बिक्री के नियमों में बदलाव करने जैसे कई मुद्दों का कांग्रेस विरोध करेगी। परंतु मुश्किल यह है कि कांग्रेस खुद ही एकजुट नहीं है और जिन लोगों पर विरोध का जिम्मा है वे अपने नेतृत्व से नाराज चल रहे हैं। ऐसे में राहुल गांधी और उनके नए नेताओं की टीम या कमाल करती है यह देखने वाली बात होगी।

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