उदारीकरण पर भी सवालिया निशान

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मूल रूप से हिब्रू में लिखी पुस्तक है, ‘रिवोल्ट- द वल्र्डवाइड अप्राइजिंग अगेंस्ट ग्लोबलाइजेशन।’ हिंदी में कहें तो ‘बगावत-उदारीकरण के खिलाफ विश्व व्यापी विरोध।’ लेखक हैं, इजराइल के विश्वप्रसिद्ध पत्रकार नादव इयाल। श्रेष्ठ पत्रकारिता के लिए उन्हें दुनिया के कई सम्मान मिले हैं। इस पर युवाल हरारी का मत है कि यह उदारीकरण के मौजूदा संकट पर, वैचारिक रूप से उद्वेलित करने वाली उत्कृष्ट ढंग से लिखी किताब है। इयाल के विश्लेषण से सभी सहमत नहीं होंगे। पर, शायद ही कोई तटस्थ रह पाए। इयाल कहते हैं कि दूसरे विश्वयुद्ध के बाद दुनिया बहुत बदली। खाड़ी युद्ध अंतिम (2003) था। विश्व में आज दो डॉलर प्रतिदिन से कम आय वाले लोगों की संख्या बहुत कम है। शिशु मृत्यु दर में गिरावट है। 50 के दशक में दुनिया की आधी आबादी से भी कम लोग लिख- पढ़ सकते थे। आज यह आंकड़ा 86 फीसद है। 2003-13 के बीच विश्व की औसत प्रति व्यक्ति आय लगभग दोगुनी हो गयी। यह सब अचानक नहीं हुआ। दूसरे विश्वयुद्ध के परिणामों से दुनिया भयभीत थी। इस कारण संसार के नेताओं ने एक आपसी समझ बनाकर विश्वव्यापी स्थायित्व और शांति का पौधा रोपा। राष्ट्रीयता के उभार, लोकलुभावन नारों के उभार पर चर्चा है। पर इयाल इस जगतव्यापी बेचैनी का उत्स तलाशते हैं।

वह कहते हैं, दूसरे विश्वयुद्ध के बाद दुनिया में उारदायित्व का दौर आया। यह दौर, उस दिन खत्म हो गया, जब ‘वल्र्ड ट्रेड सेंटर’ भर-भराकर गिरा दिया गया। अमेरिका की धरती पर अलकायदा का हमला महज कट्टरवादियों का प्रहार नहीं था। यह अमेरिका के विश्वव्यापी विजन का अंत था। यह धर्मों के बीच झगड़ा नहीं, दो विचारों या धाराओं के बीच टकराव था। दुनिया घूमने के बाद इयाल का मत है कि आज अधिक संख्या में लोग उदारीकरण को खारिज करते हैं। नया वैकल्पिक संसार कैसा हो, उन्हें नहीं मालूम। लेखक का मत है कि उदारीकरण के खिलाफ सबसे खूनी झंडा कट्टरपंथियों और आतंकवादियों का है। अमेरिका, रूस जैसे देशों ने भी 2017 में उदारीकरण के बारे में अपनी सीमाएं, शंकाएं और विरोध दर्ज कराया था। पर, इयाल की नजर में तकनीकी क्रांति और सामाजिक प्रगति के बीच असंतुलन है, लोगों में विक्षोभ भी है। इस तकनीकी क्रांति ने कैसी ताकतों को लोकप्रियता दी है, पुस्तक में एक जगह इसका डरावना संकेत है। अमेरिका की एक मार्मिक घटना का विवरण : 2012 में कनेक्टिकट शहर के एक स्कूल के छह स्टाफ और पहली कक्षा के 20 बच्चों को किसी सिरफिरे ने गोली मार दी। दुनिया स्तब्ध थी।

2016 के बसंत में इयाल वहां गए। पाया कि जड़ बना देने वाली बातें चर्चा और बहस में हैं। कुछ मानते थे कि इन्हें ओबामा प्रशासन ने मरवा दिया। इंटरनेट के एक सेलेब्रेटी एलेक्सा जॉन्स ने कहा, स्कूल में कोई मरा नहीं। बच्चों के परिवार वालों ने मुकदमा किया, तो एलेक्सा पलट गए। अपनी बात वापस ली। गौर करिए, सोशल मीडिया के इस दौर में किस मानस के लोग सेलिब्रिटी बन जाते हैं। आज तो अलग-अलग मुल्कों में एलेक्सा जॉन्स की संख्या गली-मोहल्ले तक पसर रही है। अफवाहें, बिना सिर पैर की बातें, निराधार आरोप या घटनाएं सुर्खियों में छा जाती हैं। फिर ऐसा करने वाले माफी भी तुरंत मांग लेते हैं या पलट जाते हैं। पर, समाज, देश और लोग इसकी कीमत चुकाते हैं। पुस्तक के कुछ संदेश साफ हैं। यह भौतिक सुख और उपलब्धि का युग है। आज की दुनिया या पीढ़ी ने वह भयावह गरीबी, अशांति, उन्माद, बेकसूरों का मरनायह सब नहीं भोगा है। दूसरे महायुद्ध के बाद की पीढ़ी ने सब देखा था। इस कारण इस दौर की पीढ़ी, दायित्वों के प्रति सचेत नहीं है।

बहुत पहले बेंजामिन फ्रैंकलिन ने कहा था, एक युवा के जीवन में सबसे अंधेरा पल वह होता है, जब वह बिना श्रम, धन चाहता है। ब्रिटेन से लेकर दुनिया के दूसरे देशों में भी क्रेडिट कार्ड दौर की उपज, युवा पीढ़ी के मानस पर अध्ययन हुआ है। चिंताजनक तथ्य सामने आए हैं। पर रास्ता नहीं निकला है। विल डूरंट ने कहा है कि छह हजार वर्षों का इतिहास हमें यही सीख देता है कि हमने कब क्या राह अपनाई और उसका क्या परिणाम निकला ? विवेकानंद ने कहा था, भारत जगतगुरु बनेगा। भारत का दर्शन, संयम, उपनिषद्, अतीत वगैरह सीख देते हैं कि अतिशय भोग से बचें। फर्ज और दायित्व बोध हो, वरना न व्यक्ति का जीवन ठीक होगा, न समाज, न देश, न संसार में चयन। इसी संदर्भ में भारत के ऋ षियों ने कहा, विश्व कुटुम्ब है। हम सब शांति से साथ रहें। एक मन से मिलकर संयम के साथ यात्रा करें। यही रास्ता है। दूसरे विश्वयुद्ध के समय दस में से छह अमेरिकियों ने माना था कि एक विश्व सरकार होनी चाहिए। डॉ. लोहिया ने तब विश्व सरकार की बात की थी। विनोबा ने तो विश्वमैत्री का नारा ही दिया था।

हरिवंश
(लेखक राज्यसभा के उपसभापति हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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