सरकार की जुमलेबाजी में नहीं फंसेंगे किसान

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संसद का मानसून सत्र शुरू होने से पहले झूठ की बारिश शुरू हो गई है। किसान आंदोलन खत्म नहीं हो रहा। कटाई, रोपाई और कोरोना के बाद दिल्ली के मोर्चों पर किसानों का लौटना जारी है। एक भी बड़ा किसान संगठन संयुक्त किसान मोर्चा से अलग नहीं हुआ है। इसलिए अब ले देकर सरकार को बस प्रचार, कुप्रचार, दुष्प्रचार का ही सहारा है।

आए दिन दरबारी मीडिया में ऐसी खबरें चलती हैं मानो किसान आंदोलन अब अपराध और गुंडागर्दी के अड्डे बन गए हैं। या फिर किसानों के बारे में सरकार के किसी ऐतिहासिक कदम का गुणगान होता है। हर बार सरकार का झूठ पकड़ा जाता है, लेकिन अगले झूठ की तैयारी शुरू हो जाती है।

पिछले दिनों सरकार की दो बड़ी घोषणाओं पर नजर डालने से यह खेल साफ हो जाएगा। जून महीने के अंत में गेहूं की सरकारी खरीद का सीजन समाप्त हो गया अगले ही दिन सरकारी विज्ञापनों में हमें बताया गया कि इस बार गेहूं की रिकॉर्डतोड़ खरीद की गई है। इशारा साफ था: किसान बिना वजह एमएसपी का शोर मचा रहे हैं, उन्हें जो चाहिए वह तो सरकार दे ही रही है।

समझदार लोग बिना आंकड़ों की जांच किए ही सरकारी प्रचार का झूठ पकड़ सकते थे। गेहूं उन चंद फसलों में से है जिनकी ठीक-ठाक सरकारी खरीद की जाती है। इसलिए गेहूं का उदाहरण देने से यह साबित नहीं होता कि सभी फसलों में किसान को एमएसपी मिलती है। यूं भी सरकारी एमएसपी वो लाभकारी मूल्य नहीं है जिसकी मांग किसान पिछले पंद्रह साल से कर रहे हैं।

लेकिन आंकड़े ध्यान से देखने पर सरकारी दावों की पोल खुलती है। सरकारी प्रचार में सिर्फ एक आंकड़ा बताया गया कि इस साल सरकार ने कुल 407 लाख टन गेहूं की खरीद की जो कि पिछले साल से 11% अधिक है। इसके आधार पर बताया गया कि किसानों को 85 हजार करोड़ रुपए की पेमेंट हुई। दोनों बड़े आंकड़े सुन भ्रम होता है कि सरकार से किसानों को बहुत फायदा हुआ है।

आंकड़ों में यह नहीं बताया गया कि सरकारी खरीद गेहूं की कुल पैदावार की महज 39% ही हुई है। या यूं कहें कि 61% फसल सरकार द्वारा निर्धारित एमएसपी पर नहीं बिकी। खरीद का अधिकांश हिस्सा चंद राज्यों तक सीमित है। पंजाब सरकार ने कुल पैदावार का 73%, हरियाणा ने 72% और मप्र ने 62% खरीदा, लेकिन बाकी राज्यों में सरकारी खरीद बहुत कम हुई।

उप्र में तो सिर्फ 17% पैदावार एमएसपी पर खरीदी गई, वहीं बिहार में 8% और गुजरात में 5%। सरकारी प्रचार से इस सच को दबाने की कोशिश की गई सबसे अधिक खरीद वाली फसल में भी किसानों को आधे से ज्यादा फसल सरकारी न्यूनतम मूल्य से नीचे बेचनी पड़ी। अनुमान है कि इससे किसानों को 590 करोड़ रुपए का नुकसान सहना पड़ा।

किसानों को ठगने का और बड़ा नमूना मंत्रिमंडल विस्तार के बाद एक फैसला था। मीडिया में इसकी घोषणा ऐसे प्रचारित की गई कि मोदी सरकार ने खेती-किसानी के लिए सौगात दी है और नए मंत्रिमंडल ने पहली बैठक में कृषि मंडियों के लिए एक लाख करोड़ रुपए के कृषि निवेश फंड की थैली खोल दी है।

दावे की जांच पर पता लगता है कि इसमें तीन झूठ हैं। पहला, कृषि निवेश फंड जैसा कोई सरकारी फंड है ही नहीं, जिसमें से पैसा निकालकर कृषि के लिए दे सकें। यह कृषि क्षेत्र को कुछ विशेष कामों के लोन देने का तय किया हुआ एक लक्ष्य मात्र है। यह लोन सरकार नहीं बैंक देंगे। सरकार बस ब्याज का छोटा-सा अंश देगी, जिसके लिए सिर्फ 900 करोड रुपए का बजट रखा है। दूसरा, तथाकथित फंड किसान के लिए नहीं है।

इसके तहत लोन का लाभ कृषि उद्योग व कंपनियों के खाते में भी जाएगा। योजना में प्रावधान है कि इसमें लोन कृषि क्षेत्र में काम कर रहे एग्रीगेटर्स व स्टोरेज के लिए काम कर रही कंपनियों को भी मिल सकेगा। यानी नाम किसान का होगा, सस्ता लोन वेयरहाउस व साइलो बनाने वाले गौतम अडानी व मार्केटिंग करने वाली अंबानी की कंपनियों को मिलेगा।

तीसरा झूठ यह है कि दरअसल यह घोषणा नई है ही नहीं। कृषि निवेश फंड स्थापित करने की घोषणा वित्त मंत्री के फरवरी 2020 के भाषण में की गई थी। इसे दूसरी बार घोषित किया गया जब 15 मई 2020 को वित्त मंत्री ने कोरोना रिलीफ पैकेज की घोषणा की थी। फिर इस साल वित्त मंत्री के बजट भाषण में इस फंड के तहत कृषि मंडियों को लोन देने की घोषणा भी की जा चुकी थी।

नए मंत्रिमंडल ने उसी फैसले को छोटे-मोटे हेरफेर के साथ फिर घोषित कर दिया। यानी कि सरकार ने एक ही घोषणा चौथी बार कर दी। हकीकत यह है कि अब तक पिछले डेढ़ साल में एक लाख करोड़ की जगह सिर्फ 4,300 करोड़ रुपए का लोन सैंक्शन किया गया है, जिसमें से अब तक 100 करोड़ का लोन भी दिया नहीं गया है। इसे कहते हैं जुमलेबाजी।

जुमलों की खुली पोल
अब किसान जुमलेबाजी में आने वाले नहीं हैं। संयुक्त किसान मोर्चा ने सरकारी जुमलों की पोल खोल दी है। और अब आगामी संसद अधिवेशन में किसान सभी सांसदों को आदेश दे रहे हैं कि वह इधर-उधर की बातें छोड़कर किसानों के दुख-दर्द और किसान विरोधी कानून का मुद्दा उठाएं।

योगेन्द्र यादव
(लेखक सेफोलॉजिस्ट और अध्यक्ष, स्वराज इंडिया हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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