सोशल मीडिया की अपनी सहूलियतें

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यूजीसी ने हाल में देश भर में चलने वाले स्नातक के पाठ्यक्रम में सोशल मीडिया की नैतिकता और शिष्टाचार विषय को शामिल करने का फैसला किया है। देश की करीब पैंसठ फीसद युवा आबादी का सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर कब्जा है। ऐसे में इसके दुरुपयोग को देखते हुए उसके बारे में युवाओं को जागरूक करने के लिए इस तरह के पाठ्यक्रम की आवश्यकता बड़ी शिद्दत से महसूस की जा रही थी। वैसे तो सोशल मीडिया की अपनी सहूलियतें हैं। इससे जहां सूचनाओं का आदान-प्रदान आसान हुआ है, वहीं हमारी जीवन शैली भी सहज हुई है। लेकिन निरंतर बढ़ती उपयोगिता के साथ-साथ स्वार्थी तत्वों द्वारा इसका दुरुपयोग भी लगातार बढ़ता जा रहा है। सोशल मीडिया को कुछ लोगों ने दुष्प्रचार का माध्यम बना लिया है जिसके कारण फर्जी और नफरत फैलाने वाली खबरों की एक अलग ही दुनिया बन गई है। इसका असर आज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में दिखना शुरू हो गया है। इससे छात्र ही नहीं, सामान्य नागरिक भी प्रभावित हो रहे हैं।

सबसे डरावना पहलू यह है कि सोशल मीडिया नेटवर्किंग से जितना विचारों का आदान-प्रदान हो रहा है, उससे कहीं अधिक आपसी टकराव और विवाद पैदा हो रहे हैं। फेसबुक और वॉट्सऐप आदि पर झूठ और तथ्यहीन बातें अधिक आ रही हैं। शब्दों के चयन पर ध्यान नहीं दिया जा रहा। एक – दूसरे पर विचारों को थोपने की कोशिश की जा रही है। अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर अपमानजनक शब्दों का प्रयोग किया जा रहा है। महापुरुषों की कृतियों पर आपत्तिजनक विडियो व फोटो डाले जा रहे हैं। जाति-नस्ल आदि के आधार पर भी टिप्पणी करके लोग समाज को दूषित करने की कोशिश कर रहे हैं। इसका बड़ा प्रभाव आज की युवा पीढ़ी पर पड़ रहा है। नई पीढ़ी डिजिटल सिस्टम में ऐसी ही टिप्पणियां देख रही है। नतीजा यह कि उसके लिए सही और गलत में फर्क समझना पहले के मुकाबले और मुश्किल हो गया है। विचार प्रकट करने की आजादी को हर व्यक्ति के लिए संभव बनाने वाला यह मंच विचार अभिव्यक्ति और आपसी संवाद को और कठिन बनाता जा रहा है।

सोशल मीडिया पर दिखने वाला यह उच्छ श्रृंखल व्यवहार वास्तविक दुनिया में हमारे व्यवहार को भी अछूता नहीं रहने दे रहा। यही नहीं, इस प्लेटफॉर्म पर अशिष्ट लोगों के संगठित समूह भी सक्रिय रहते हैं, जिनके लिए ‘ट्रोलर’ शब्द गढ़ा गया है। ये ट्रोल करने वाले किसी मुद्दे पर चल रही चर्चा में कूदकर आक्रामक और अनर्गल प्रतिक्रिया देते हैं। इनका मकसद ही होता है गाली-गलौज और अश्लील धमकियों के जरिए किसी स्वस्थ आलोचना का मुंह बंद करना। लोक तांत्रिक बहस को बंद करने की कोशिशों में कथित ट्रोल सेना इतनी आगे है कि सोशल मीडिया का सर्वसुलभ मंच भी निरर्थकता की ओर बढ़ता दिखने लगा है। यह कहना अनुचित नहीं है कि जो लोग समाज में अपना वजूद साबित नहीं कर सकते या जो असामाजिक प्रवृति के हैं या फिर सामाजिक उपेक्षा का शिकार हैं, ऐसे ही लोग ट्रोल आर्मी का हिस्सा बन सोशल मीडिया पर सक्रिय होते हैं।

बहरहाल, इनसे निपटने और सोशल मीडिया को एक स्वस्थ, लोक तांत्रिक मंच के रूप में बरकरार रखने का उपाय यही है कि यहां सक्रिय लोगों के व्यवहार को उपयुक्त दिशा दी जाए। अब तक इसके लिए नए नियम-कानून बनाने जैसे कदमों पर ही चर्चा हो रही थी, मगर यूजीसी के इस कदम ने नई पीढ़ी में शिक्षा के जरिए इस लक्ष्य को हासिल करने की संभावना जगाई है। इसमें दो राय नहीं हो सकती कि सोशल मीडिया पर गैरजिम्मेदार व्यवहार के पीछे की बड़ी वजह सही शिक्षा का अभाव ही है। युवाओं को सही शिक्षा मिल जाए, उन्हें खुद को ठीक से व्यक्त करना सिखा दिया जाए तो उनकी सोच भी सकारात्मक होने लगेगी। सहज विचार-विनिमय आसान होगा तो एक-दूसरे को समझना भी आसान होगा। कुल मिलाकर, इसके नतीजे तो काफी हद तक अमल के तरीकों पर निर्भर करते हैं, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि यूजीसी ने सही दिशा में एक कदम उठाया है।

नरपत दान बारहठ
(लेखक स्तंभकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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