कुछ तो सड़ रहा है लोकतंत्र में!

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विलियम शेक्सपीयर के नाटक हेमलेट के पहले एक्ट के चौथे दृश्य में डेनमार्क प्रशासन का एक अधिकारी मार्सेलस कहता है- समथिंग इज रॉटेन इन द स्टेट ऑफ डेनमार्क! मार्सेलस ने डेनमार्क के दिवंगत राजा के भूत को राजमहल की दीवारों पर चलते देखा था और तब कहा था कि डेनमार्क राज्य में कुछ तो सड़ रहा है। कुछ दिन पहले जस्टिस मार्कण्डेय काटजू ने सुप्रीम कोर्ट में जज रहते हुए इलाहाबाद हाई कोर्ट के बारे में यह बात कही थी। अभी लोकतांत्रिक भारत में भी ऐसा लग रहा है कि कुछ सड़ रहा है। लोकतंत्र के चारों स्तंभ इस सड़न के असर में आ गए दिख रहे हैं।

पिछले कुछ दिनों में तीन आईएएस अधिकारियों ने इस्तीफा दिया है। जम्मू कश्मीर काडर के अधिकार और अपने बैच के टॉपर शाह फैसल ने सबसे पहले इस्तीफा दिया। उसके बाद दादर व नागर हवेली में तैनात आईएएस अधिकारी गोपीनाथ कन्नन ने और फिर कर्नाटक काडर के एस शशिकांत सेंथिल ने इस्तीफा दे दिया। तीनों अधिकारियों ने लगभग एक जैसे कारण बताए। तीनों ने कहा कि लोकतंत्र के बुनियादी उसूल संकट में हैं। बोलने की निर्बाध स्वतंत्रता बाधित की जा रही है। ऐसे में पद पर बने रहने का कोई मतलब नहीं है। कार्यपालिका में शीर्ष पदों पर बैठे अधिकारी अगर ऐसा सोच रहे हैं तो यह निश्चित रूप से एक गंभीर बात है।

पिछले दिनों मद्रास हाई कोर्ट की चीफ जस्टिस विजया के तहिलरमानी ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया है। सुप्रीम कोर्ट की कॉलेजियम ने उनका तबादला मद्रास हाई कोर्ट से मेघालय कर दिया था। उन्होंने इसका विरोध किया था। इतनी बड़ी हाई कोर्ट से मेघालय जैसे छोटे हाई कोर्ट में भेजा जाना उनको अपना अपमान लगा था। जब उनके विरोध को दरकिनार कर दिया गया तो उन्होंने इस्तीफा दे दिया। मद्रास हाई कोर्ट बार एसोसिएशन के वकील उनके समर्थन में हड़ताल पर हैं और कामकाज ठप्प किया हुआ है। न्यायपालिका में सब कुछ ठीक नहीं होने का संकेत देने वाली यह एक प्रतिनिधि घटना है। वैसे पिछले कुछ बरसों में ऐसी कई घटनाएं हुई हैं, जिनसे न्यायपालिका के कामकाज पर सवाल उठा है।

मीडिया का संकट इन दोनों से जरा ज्यादा गहरा है। चौथे स्तंभ के तौर पर पेश किए जाने वाले मीडिया पर कई किस्म के दबाव हैं। पहले भी दबाव होते थे और दूसरी सरकारों ने भी अखबारों, चैनलों के विज्ञापन रोक कर अपने विरोध की आवाज को दबाने का प्रयास किया था। पर मौजूदा समय में अगर आपकी आवाज सहमति वाली नहीं है तो आपके लिए काम करना ही मुश्किल है। देश के सबसे बड़े मीडिया समूह के न्यूज चैनल मिरर नाऊ की पत्रकार फई डिसूजा की विदाई के बाद कांग्रेस नेता शशि थरूर का ट्विट इस ओर इशारा करता है। पर यह कोई अपवाद की घटना नहीं है। हाल के बरसों में इस तरह से किसी न किसी दबाव में अनेक पत्रकारों को काम छोड़ना पड़ा है।

लोकतंत्र के सबसे प्रमुख स्तंभ विधायिका में चीजों का सड़ना सबसे पहले शुरू हुआ था। अतीत की अपनी गलतियों के कारण लगभग सारे नेता फिसलन भरी सड़क के ऐसे किनारे पर खड़े हैं, जिसके आगे जेल का रास्ता शुरू होता है। कुछ जेल पहुंचा दिए गए हैं और कुछ के सर के ऊपर जांच की तलवार लटक रही है। वहां बचने का एक ही रास्ता है कि नेता रंग बदल लें। सो, बड़ी शिद्दत से नेता अपनी विचारधारा और अपने झंडे का रंग बदलने में लगे हैं। अच्छा है, थोड़े समय के बाद राजनीति के सारे धन्ना सेठ और काले अतीत वाले लोग एक ही जगह मिलेंगे।

बहरहाल, अब सवाल है कि इन सबके पद छोड़ने या रंग बदलने को क्या पलायन माना जाए? या यह प्रतिरोध का एक तरीका है, जो भले अभी कारगर नहीं दिख रहा हो, पर दीर्घावधि में इसका असर दिखेगा? दोनों बातों के पक्ष में तर्क दिए जा सकते हैं। ध्यान रहे भारतीय न्यायपालिका के इतिहास की सबसे चमकदार तस्वीर सर्वोच्च अदालत की दो नंबर कोर्ट में लगी है। वह आपातकाल के समय एडीएम जबलपुर केस में मौलिक अधिकारों के पक्ष में फैसला देने वाले जस्टिस हंसराज खन्ना की तस्वीर है। वे देश के चीफ जस्टिस नहीं बन पाए। उन्होंने इस्तीफा दे दिया पर उनका फैसला मील का पत्थर बना। सो, कई बार पलायन ज्यादा बड़ा संदेश देने का माध्यम हो सकता है। पर हमेशा नहीं। महाभारत की लड़ाई में अर्जुन ने दो प्रतिज्ञाएं की थीं- न दीनता और न पलायन। अर्जुनस्य प्रतिज्ञे द्वे, न दैन्यं न पलायनम्! दीन हीन कातर होकर सत्तावान के चरणों में पड़ जाना या उसके दबाव में पलायन कर जाना, ये दोनों समस्या का समाधान नहीं हैं। लड़ना और बदलने का प्रयास करना ही समाधान हो सकता है।

यह समझना होगा कि लोकतंत्र जिन स्तंभों के सहारे खड़ा है अगर वे सड़ रहे हैं तो उन्हें ठीक करने के लिए बाहर से कोई मसीहा नहीं आने वाला है। जो उसका हिस्सा हैं उन्हें ही इसे ठीक करने के लिए काम करना होगा।

अजित द्विवेदी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

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