हरिशयनी एकादशी

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श्रीहरि-श्रीविष्णु जी क्षीरसागर में करेंगे विश्राम
मांगलिक कार्यों पर लगेगा विराम
भगवान श्रीविष्णुजी का दर्शन-पूजन व व्रत अत्यन्न कल्याणकारी

भारतीय संस्कृति के हिन्दू धर्मशास्त्रों में प्रत्येक माह की तिथियों का अपना खास महत्व है। मास व तिथि के संयोग होने पर ही पर्व मनाया जाता है। आषाढ़ मास के शुक्लपक्ष की एकादशी तिथि देवशयनी, हरिशयनी या पद्मा एकादशी तिथि के रूप में मनाने की धार्मिक परम्परा है। ऐसी मान्यता है कि इस गिन देवता सो जाते हैं, जिससे देवशयनी एकादशी कहा जाता है। आज के दिन से भगवान श्रीविष्णु चार माह के लिए क्षीरसागर में प्रस्थान कर शेषनाग की शय्या पर योगनिद्रा में लीन हो विश्राम करते हैं। इसके साथ ही समस्त मांगलिक कार्यों पर विराम लग जता है। इस तिथि को व्रत उपवास रखकर भगवान श्रीविषणु जी की पूजा-अर्चना करने का विशेष महत्व है। आज के दिन घर में तुलसी का पौधा लगाने से यमदूत का भय खत्म हो जाता है।

ज्योतिषविद् श्री विमल जैन जी ने बताया कि इस बार हरिशयनी या देवशयनी एकादशी तिथि 12 जुलाई, शुक्रवार को पड़ रही है। आषाढ़ शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि 11 जुलाई, गुरुवार की अर्द्धरात्रि 01 बजकर 03 मिनट पर लगेगी जो कि 12 जुलाई, शुक्रवार की रात्रि 12 बजकर 31 मिनट तक रहेगी। हरिशयनी एकादशी का व्रत 12 जुलाई, शुक्रवार को रखा जाएगा। इसी दिन से चातुर्मास्या के यम-नियम-संयम एवं व्रत प्रारम्भ होंगे जो कि कार्तिक शुक्ल पक्ष की देव प्रबोधिनी एकादशी 8 नवम्बर, शुक्रवार को खत्म हो रहा है। चातुर्मास्य में समस्त मांगलिक कार्यों पर विराम लग जाता है। जबकि धार्मिक अनुष्ठान विधि-विधानपूर्वक परम्परा के अनुसार सम्पन्न होते रहते हैं।

ज्योतिषविद् श्री विमल जैन जी ने बताया कि व्रतकर्ता को अपने दैनिक नित्य कृत्यों से निवृत्ति होकर स्नान ध्यान के पश्चात हरिशयनी एकादशी के व्रत का संकल्प लेना चाहिए। व्रत का संकल्प दशमी तिथि के दिन प्रातःकाल लिया जाता है। हरिशयनी एकादशी पर व्रत व उपवास रखकर भगवान श्रीहरि विष्णुजी की पंचोपचार, दशोपचार या षोडशोपचार पूजा-अर्चना करेक भगवान श्रीविष्णुजी की कृपा प्राप्त करनी चाहिए। पूजा-अर्चना के उपरान्त अपने सामर्थ्य के अनुसार दान-पुण्य करना चाहिए। जिसके अन्तर्गत स्वर्ण रजत, नूतन वस्त, ऋतुफल, मेवा-मिष्ठान्न व नगद द्रव्य आदि सुपात्र ब्राह्मण को दान देना अत्यन्त शुभ फलादायी माना गया है। श्रीविष्णु उपासक साधु, सन्त व साधक को आषाढ़ शुक्ल एकादशी यानि देवशयनी एकादशी से कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि तक अपने परिवार के अतिरिक्त अन्यत्र कुछ भी ग्रहण करने से बचना चाहिए। चातुर्मास्य की अवधि में गुड़, तेल, शहद, मूली, परवल, बैंगन व साग-पात नहीं ग्रहण करना चाहिए और अन्यत्र (अपने परिवार के अतिरिक्त) से प्राप्त दही-भात बिल्कुल नहीं खाना चाहिए। चातुर्मास्य के व्रत का पालन करने वालों को अन्यत्र भ्रमण नहीं करना चाहिए, एक ही स्थान पर रहकर देव-अर्चना करनी चाहिए। इस अवधि में ब्रह्मचर्य का पूर्ण नियम रखना चाहिए। भगवान श्रीविष्णु की विशेष अनुकम्पा-प्राप्ति एवं उनकी प्रसन्नता के लिए एकादशी तिथि की रात्रि में मौन रहकर रात्रि जागरण करना चाहिए तथा भगवान श्रीविष्णु जी के मन्त्र ‘ऊँ नमो नारायण’ या ‘ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय’ मंत्र का नियमित रूप से अधिकतम संख्या में जप करना चाहिए। भगवान श्रीविष्णु जी की श्रद्धा, आस्था भक्तिभाव के साथ आराधना कर पुण्य अर्जित करके लाभ उठाना चाहिए।

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