वोटिंग की धीमी रफ्तार

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आम चुनाव के चौथे चरण में मतदान की रफ्तार बहुत सुस्त रही। यूपी की 13 सीटों पर अपराहृन तीन बजे तक 43.91 फीसदी मतदान हो चुका था। सायं पांच बजे के बाद की तस्वीर का अंदाजा लगाया जा सकता है। यह सही है कि इन दिनों आसमान से आग के गोले बरस रहे हैं। सुबह के दूसरे हिस्से में घर से बाहर निकलना और लाइन में लगकर अपनी बारी का इंतजार करना किसी समस्या से कम नहीं है। वैसे भी समझ-बूझकर अपने वोट का इस्तेमाल रना लोक तंत्र को मजबूत बनाता है। भारी तादाद में सुबह निकलना शायद नहीं हो पाया होगा। इसीलिए प्रतिशत में अपेक्षित इजाफा देखने को नहीं मिली। मतदाताओं को जागरूक करने के लिए चली मुहिम का असर इस चरण में देखने को नहीं मिला। वैसे देशभर में 71 संसदीय सीटों पर मतदान हुआ है। पश्चिम बंगाल से जरूर छिटपुट मारपीट की खबरें हैं। बाकी मतदान शांतिपूर्ण रहा। यूपी में थोड़ी बहुत एक दूसरे के खिलाफ आरोप-प्रत्यारोप और तनातनी की सूचनाएं कुछ संसदीय इलाकों से सामने आई हैं।

वैसे मतदान के दिन ऐसी बातें स्वाभाविक मानी जाती हैं। इस चरण में यूपी से जिन सियासी दिग्गजों की प्रतिष्ठा दांव पर है उनमें कन्नौज से सपा सांसद डिंपल यादव, उन्नाव से भाजपा सांसद सच्चिदानंद हरि साक्षी महाराज, कानपुर से योगी सरकार के मंत्री सत्यदेव पचौरी व पूर्व केन्द्रीय कांग्रेस प्रत्याशी श्रीप्रकाश जायसवाल, इटावा से भाजपा प्रत्याशी व पूर्व केन्द्रीय मंत्री रामशंकर कठेरिया और फर्रुखाबाद से पूर्व केन्द्रीय मंत्री व कांग्रेस उम्मीदवार सलमान खुर्शीद प्रमुख हैं। खासतौर पर जब ईवीएम की गणना सामने आएगी तो इन प्रमुख नामों पर सबकी नजर होगी। चौथे चरण के मतदान के बीच पांचवें चरण के चुनाव में पार्टियों के स्टार प्रचारकों ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी है। खास बात यह है कि हमारे नेता जमीनी मुद्दों से जर र गढ़े जा रहे नित नये शब्द बिम्बों को चर्चा में लाकर वोटरों का ध्यान बंटाने का काम कर रहे हैं। रोटी-कपड़ा और मकान पर कोई वाद-विवाद नहीं, बस राष्ट्रवाद और देशभक्ति पर नेताओं ने बहस छेड़ रखी हे। जबकि देश का हर नागरिक राष्ट्रवाद और देशभक्ति को समझता और जीता भी है। देश के सवाल पर सारे मसले पीछे छूट जाते हैं। लेकिन यह तो आम चुनाव है, जहां वोटर अपनी अपेक्षाएं लेकर वोट देता है। उसके सवाल रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़े होते हैं।

रोजगार के लिए ज्यादा भटकना न पड़े और योग्यता के अनुसार अवसरों की उपलब्धता रहे, यही तो हर किसी की चाहत होती है। अब इसके लिए हमारे नेता जब आंकड़ों का हवाला देकर रोजगार का एहसास कराने का उद्यम करते हैं, तब किसी को भी कोफ्त हो सकती है। यही हाल सेहत का भी है। तमाम दावों के बीच सरकारी चिकित्सा व्यवस्था आम लोगों के लिए कम, विशिष्टों के लिए उपयोग में आती दिखती है। रही बात निजी चिकित्सा क्षेत्र के चिकित्सालयों की तो वे इतने महंगे हैं कि आम आदमी की जेब वह बोझ सह नहीं सकती। इस लिहाज से आयुष्मान भारत योजना गरीब परिवारों के लिए केन्द्र सरकार की तरफ से शुरू तो हुई है लेकिन हाल यह है कि आयुष्मान भारत का कार्ड होने के बावजूद लोगों को आसानी से इलाज नहीं मिलता। यह बात और है कि कि सी तरह मामला ऊपर तक पहुंचता है तो ही इलाज मिलना शुरू होता है। दिक्कत ये है कि पात्र होने के बाद भी योजनाओं का लाभ तभी मिलता है जब ऊपर से कोई दबाव हो। लोकतंत्र के ऐसे दौर में भी वोटर बड़ी उम्मीद लिए बूथ तक पहुंचता है, यह महत्वपूर्ण बात है। हमारे नेताओं को यह बात समझ में आनी चाहिए कि योजनाओं के क्रियान्वयन की भ्रष्टाचार मुक्त पारदर्शी व्यवस्था से मतदान के प्रति जीवंत ललक स्वत: पैदा होगी और इससे लोक तंत्र भी सचेतन होगा।

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