तालिबान : सियासत भी सीखी, कूटनीति भी

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अगले कुछ दिनों में तालिबान के ताजा वायदों और जमीनी हकीकत का पता चल सकेगा। जब तालिबान की सरकार 2001 में खत्म हुई थी, करीब 20 साल पहले तो उस वत उनके बारे में सिर्फ यह ख्याल था कि ये लडऩे – मरने वाले लोग हैं। लेकिन पिछले 20 सालों में उन्होंने सियासत भी सीख ली है और कूटनीति भी। सियासत और कूटनीति का आम जुबान में मतलब है कि आप अपने वादों से मुकर सकते हैं, झूठ भी बोल सकते हैं, यूटर्न ले सकते हैं।

मैं समझता हूं कि ये 20 साल पहले जो तालिबान था और आज का तालिबान हैा इनके अप्रोच में कोई ज्यादा फर्क नहीं है लेकिन इनके टैटिक में तब्दीली आ चुकी है। इसका सबूत है कि पिछले साल दोहा में वल्र्ड पावर के साथ इन्होंने शांति समझौते किए। इसमें यह तय किया गया कि राजनीति गतिविधि के जरिए काबुल जाएंगे, बातचीत के जरिए जाएंगे। लेकिन राजनीति सेटलमेंट के तहत काबुल नहीं गए हैं, तो उनके विश्वसनीयता पर सवाल है। तालिबान के प्रवता मुजाहिद ने बताया कि उन्होंने बहुत सारे वायदे किए हैं।

दोहा एग्रीमेंट साइन होने के बाद से लेकर अब तक ट्रैक रिकॉर्ड देखा जाए तो उन्होंने बहुत सी अच्छी बातें की है लेकिन इसे लागू करने में कमी हमें नजर आ रही है। महिलाओं के हक को लेकर उन्होंने कहा कि काबुल में हमारे बहुत से सहयोगी हैं, उनमें पुरुष और महिलाएं दोनों हैं। उन्होंने हमें समस्या बताई है, कई बड़ी समस्या हैं। ज्यादा समस्या महिला पत्रकारों के साथ है। हमने अफगान तालिबान के नेताओं से भी बात की। मैंने उनसे कहा कि आप प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहते हैं कि कोई समस्या महिलाओं के साथ नहीं होगी. लेकिन महिलाओं को रोका जा रहा है कि दफ्तरों में नहीं जाएं….देखिए दो तीन दिन लगेंगे…बातें तो उन्होंने बहुत कही है।

बता दें कि तालिबान के प्रवता जबीहुल्लाह मुजाहिद ने अफगानिस्तान पर कब्जे के बाद जोर देकर कहा था कि महिलाओं के अधिकारों का इस्लामी कानून के तहत सम्मान किया जाएगा। उन्होंने कहा था कि महिलाएं काम कर सकेंगी। चिंता की बात यह है कि दो तीन दिनों में अफगानिस्तान में सारी जेल तोड़ दी गई है, इसमें वे लोग भी बंद थे जो पाकिस्तान, चीन और अन्य देशों के लिए वांटेंड हैं।

काबुल जेल से तालिबान ने अपने साथियों को छुड़ा लिया है। जो उनके खिलाफ थे, उन्हें गोली मार दी गई। यह चिंता की बात है। अगर कोई कितना भी बुरा यों न हो वगैर ट्रायल के सजा देना ठीक नहीं है? पाकिस्तान का इंटरनेशनल राजनीति में अजीबो-गरीब किरदार बन रहा है। पाकिस्तान अशरफ गनी को भी मदद कर चुका है। दूसरी तरफ ऐसी बात है कि ये लोग तालिबान को भी कंट्रोल करते हैं? दोहा एग्रीमेंट के बाद देखा गया कि न तो अशरफ गनी पाकिस्तान की बात मान रहे थे और न ही तालिबान। तालिबान पर जो पाकिस्तान का प्रभाव है वो पूरी दुनिया को पता चल गया था।

तुर्की में बैठक में तालिबान ने जाने से इनकार कर दिया, जबकि पाकिस्तान ने कोशिशें की। तालिबान को अब ट्रस्ट बहाल करना है। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान को संभल कर बयान देने चाहिए। जून 2021 में लेख लिखकर इमरान खान कहते हैं कि तालिबान को मिलिट्री पावर से काबुल पर कब्जा नहीं करना चाहिए और अब कह रहे हैं कि गुलामी की जंजीरें तोड़ दी। गुलामी की जंजीरें तो पाकिस्तान की स्टेबलिस्मेंट ने पहनाई थी, परवेज मुशर्रफ के दौर में पाकिस्तान ने अमेरिका को हवाई अड्डे दिए थे। मुशर्रफ के साथी आज इमरान खान की सरकार में मंत्री हैं। तो फिर ऐसे में क्या कहा जाए?

हामिद मीर
(लेखक पाकिस्तान के वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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