नए स्वास्थ्य मंत्री मनसुख मांडविया की अंग्रेजी का मजाक उड़ाए जाने पर छिड़ी ऑनलाइन बहस में आप किस पक्ष के साथ थे? एक पक्ष ने मजाक को निंदनीय और अनुचित बताया। मैं इसके साथ हूं। दूसरा पक्ष मांडविया की टूटी-फूटी अंग्रेजी में लिखे पुराने ट्वीटों को मज़ाकिया मानता है। इस पक्ष का सवाल है कि इस महामारी में उन्हें देश के स्वास्थ्य मंत्रालय का जिम्मा कैसे सौंप सकते हैं? इससे यह भी जाहिर होता है कि भाजपा में प्रतिभाओं की कमी है और वह मतदाताओं को एहसास करा रही है कि उन्होंने उसे वोट देकर ‘बड़ी भूल’ की।
मैं इसलिए पहले वाले पक्ष के साथ हूं, जिसके साथ ज़्यादातर भारतीय होंगे, क्योंकि यह मानना गलत और अहंकारपूर्ण है कि जिसे अंग्रेजी का ज्ञान है वही शिक्षित, बुद्धिमान है। अंग्रेजी से फर्क नहीं पड़ता। आज कोई यह याद नहीं करता कि एक राष्ट्रीय पार्टी के सबसे ताकतवर अध्यक्ष (कांग्रेस, 1963-65) रहे के. कामराज को 11 साल की उम्र में घोर गरीबी और पिता की मृत्यु के कारण स्कूल छोड़ना पड़ा था। वे अपनी तमिल को, भारत के गरीबों के मन को बहुत अच्छी तरह जानते थे और उनमें एक पढ़े-लिखे नेता वाली राजनीतिक समझदारी थी। अंग्रेजी का उनका ज्ञान कितना था? दरअसल, सामाजिक कुलीनतावाद हमारे अंदर गहरी जड़ जमाए है।
लेकिन अंग्रेजी के ज्ञान को हम कमतर नहीं आंक सकते। भारत में यह ताकत की भाषा है। इसलिए लोहियावादियों ने सामाजिक कुलीनतावाद के विरोध के लिए अंग्रेजी को खारिज करके गलती की। मुलायम सिंह यादव ने यूपी में इसे स्थापित करने की कोशिश की लेकिन अखिलेश यादव इससे चुपचाप अलग हो गए। यही वजह है कि आज योगी आदित्यनाथ और जगन मोहन रेड्डी इंगलिश मीडियम पढ़ाई को आगे बढ़ाने की बुद्धिमानी बरत रहे हैं।
देशभर में अंग्रेजी भाषा हम तमाम तरह से लिखते और इस्तेमाल करते हैं। बंगाल में आप पूछिए कि अमुक आदमी कहां है, तो जवाब मिल सकता है, वह ‘गौन मार्केटिंग’। लोकल अंग्रेजी में इसका मतलब है कि वह ख़रीदारी करने गया है। पंजाब के कस्बों में लोगों से कहेंगे कि आप संपादक हैं, तो शायद बहुत भाव न मिले, लेकिन पल भर में उन्हें समझ आ जाएगा, ‘ओह! आप ‘ऑडिटर’ हैं’। इसके बाद उनका चेहरा प्रशंसा भाव से चमक उठेगा।
फिर साफ कर दूं कि यहां खराब अंग्रेजी की वकालत नहीं की जा रही। सही और समझ में आने वाली भाषा का इस्तेमाल हमेशा बेहतर होता है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि आप ऐसा नहीं कर रहे तो किसी काम के नहीं हैं। इसके अलावा, बिलकुल सटीक और सही अंग्रेजी क्या है, इसे सैकड़ों तरीके से बताया जा सकता है। जैसे दिल्ली में लड़की के विवाह के विज्ञापनों के मुताबिक, अगर आप ‘कॉन्वेंटेड’ हैं या इससे भी बेहतर ‘थरूरियन’ हैं तब भी आप अंग्रेजी का लगभग सटीक प्रयोग कर रहे होंगे।
आप किसी भाषा के साथ कैसे जुड़ते हैं, इस पर भी निर्भर करता है कि आप उसे कैसे सीखते हैं। मैं जिस स्कूली सिस्टम में पढ़ता था उसमें छठी क्लास से अंग्रेजी का अक्षर ज्ञान शुरू होता था। हमने अखबारों, रेडियो बुलेटिनों और क्रिकेट कमेंटरी से अंग्रेसी सीखी और उसे सुधारते गए। हम ‘हिंदी मीडियम टाइप’ या ‘एचएमटी’ टाइप लोग इस भाषा में कभी निष्णात नहीं हो पाए।
यह आर्थिक सुधारों की 30वीं वर्षगांठ का महीना है। वामपंथी टीकाकार इन सुधारों की आलोचना करते हैं कि इसने भारत में कुलीनतावाद की नई लहर ला दी। लेकिन वे गलत हैं। वास्तव में, इनमें से कई खुद पुराने कुलीनों के वंशज हैं, जिन्हें आर्थिक उत्कर्ष से सशक्त हुए ‘एचएमटी’ भारतीयों की नई पीढ़ी ने पीछे छोड़ दिया। अचानक कई कंपनियां, कई नियोक्ता उभरे और हुनरमंद कामगारों की मांग बढ़ गई। तमाम दून स्कूल, सेंट स्टीफन्स कॉलेज, ऑक्सफोर्ड, कैम्ब्रिज, आइवी लीग मिलकर भी मांग नहीं पूरी कर सके। अचानक यह बेमानी हो गया कि आपके पिता कौन थे, परिवार किस क्लब का सदस्य था। यह बदलाव सभी बोर्डों में देखा गया, सी-सुइट्स वाले कॉर्पोरेट बोर्ड, स्टार्ट-अप, सिविल सर्विसेज से सेना के बोर्ड तक।
मैं वापस राजनीति और मांडविया को लेकर हुए विवाद से मिले सबक पर आता हूं। मैं कहता रहा हूं कि मोदी की राजनीति के तीन प्रमुख तत्व हैं- एक नया, पुनर्परिभाषित हिंदू राष्ट्रवाद; भ्रष्टाचार विरोधी योद्धा की छवि; और सबसे गरीब लोगों के कल्याण की योजनाओं का कुशलता से क्रियान्वयन। मैंने एक और प्रमुख तत्व की अनदेखी कर दी थी, वह है कुलीनतावाद का विरोध। अंग्रेजी भाषी कुलीनों के खिलाफ व्यापक विरोध दशकों से आकार लेता रहा है। हमारी स्कूली पाठ्यपुस्तकों में बताया जाता था कि नेहरू किस अमीरी में पले थे। आज यह प्रभावित नहीं करता। लेकिन ‘चाय वाले’ की कहानी चल जाती है।
मोदी को उस सबका विलोम माना जाता है जिनके लिए कांग्रेस के नेता जाने जाते थे। देसी बनाम पश्चिमी रंग-ढंग वाले कुलीन। जब मोदी लुटिएन्स वालों पर हमले करते हैं तो उनका इशारा उच्च तबके की ओर होता है। इसलिए, जब आप उनका मज़ाक इसलिए उड़ाते हैं कि वे ‘स्ट्रेंथ’ का उच्चारण ‘स्ट्रीन्ह’ करते हैं या मांडविया का मज़ाक उड़ाते हैं कि वे महात्मा गांधी को ‘नेशन ऑफ फादर’ कह देते हैं, तब आप उनकी ही बात को मतदाताओं के बीच मजबूती देते हैं।
शेखर गुप्ता
(लेखक एडिटर-इन-चीफ, ‘द प्रिन्ट’ हैं ये उनके निजी विचार हैं)