पुराने समय में जनता वत्सल व एक आदर्श राजा की एक खुबी होती थी कि वह अपने कार्य की समीक्षा करने के लिए स्वयं भेष बदलकर जनता के बीच जाता था और उनकी इच्छाएं जानकर अपने कार्य की समीक्षा करता था। अब समय बदल गया है। वर्तमान में राजा जनता के बीच जाने की बजाए अपने मंत्रियों की सलाह पर निर्णय लेता है। इसका जनता पर या प्रभाव पड़ता है उसे उसकी चिंता नहीं होती, उसे तो जनता को अपनी ताकत का अहसास कराना होता है। शायद यही कुछ हो रहा है जिसकी बानगी हमें नताशा नारवाल, देवांगना कलिता और आसिफ इकबाल के मामले में हाईकोर्ट की टिप्पणियों से मिल रही है। इन टिप्पणी से सरकार पर कोई फर्क पड़ेगा, इसकी उमीद नहीं है। लेकिन इससे ये घटनाक्रम इतिहास में दर्ज होगा। उसमें लिखा जाएगा कि एक दौर ऐसा आया था, जब सरकार के विरोध को आतंकवाद समझा जाने लगा था। भले सरकार पर इसका कोई असर ना हो, लेकिन नताशा नारवाल, देवांगना कलिता और आसिफ इकबाल तन्हा के मामले में की गईं दिल्ली हाई कोर्ट की टिप्पणियों को लंबे समय तक याद रखा जाएगा।
इन टिप्पणियों का संबंध भारत के लोकतंत्र और उससे उसके भविष्य से है। दिल्ली के तीन छात्रों को एक साल से ज्यादा समय से जेल में रखा गया था। मामला उनकी ही जमानत अर्जी का था। हाई कोर्ट ने उन्हें जमानत दी। ये अपने आप में अहम है। लेकिन उससे ज्यादा महत्तवपूर्ण वह है, जो जजों ने जमानत का आदेश देते हुए की। ये तीनों छात्र 2019 के आखिर में नागरिकता कानून के खिलाफ देश में चल रहे आंदोलन से जुड़े थे। दिल्ली पुलिस ने फरवरी 2020 में दिल्ली में हुए दंगों में अपनी जांच के दौरान इन तीनों पर दंगों के पीछे की साजिश में शामिल होने का आरोप लगाया। उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। तीनों के खिलाफ आईपीसी की कई धाराओं के अलावा यूएपी, के तहत भी आरोप लगाए गए। पुलिस ने इस विवेक का परिचय नहीं दिया कि यूएपीए को आतंकवादियों के खिलाफ इस्तेमाल के लिए बनाया गया था। तीनों छात्रों की जमानत अर्जियों को स्वीकार करते हुए खंडपीठ ने कहा कि उनके खिलाफ प्रथम दृष्टि में यूएपीए लगाने का कोई आधार नहीं बनता।
अदालत ने विरोध करने के अधिकार, असहमति जताने के अधिकार और लोकतंत्र में पुलिस और शासन की भूमिका से जुड़ी कई महत्वपूर्ण टिप्पणियां कीं। अदालत ने कहा है कि विरोध करने का अधिकार गैर कानूनी नहीं है और वो यूएपीए के तहत आतंकवादी गतिविधि की परिभाषा के तहत नहीं आता। अदालत ने दो टूक कहा कि दिल्ली पुलिस की चार्जशीट में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो यह साबित करे कि कोई आतंकवादी गतिविधि हुई थी या किसी आतंकवादी गतिविधि को अंजाम देने के लिए पैसे इकठ्ठा किए गए थे या किसी आतंकवादी गतिविधि की योजना बनाई गई थी। अदालत ने कहा कि जिस रोज लोकतांत्रिक विरोध और आतंकवाद के विरोध की रेखा मिटा दी जाएगी, वह लोकतंत्र के लिए दुखद दिन होगा। साथ ही अदालत ने चेतावनी दी कि जो गतिविधियां आईपीसी की धाराओं के तहत आती हों, उन पर यूएपीए लगाने से ऐसा लगता है कि सरकार की एक एजेंसी भेडिय़ा आया चिल्ला रही है। इन टिप्पणियों से सरकार पर कोई फर्क पड़ेगा, इसकी उमीद नहीं है। लेकिन इससे ये घटनाक्रम इतिहास में दर्ज होगा। उसमें लिखा जाएगा कि एक दौर ऐसा आया था, जब सरकार के विरोध को आतंकवाद समझा जाने लगा था।