एक सवाल अक्सर पूछा जाता है कि ईश्वर कैसे पैदा हुए। किस माता ने ईश्वर को जन्म दिया? यह एक बहुत ही रोचक सवाल है जिसका जवाब इतना आसान नहीं है। हमारे मंदिरों में भगवान गर्भगृह में रहते हैं। तो यह गर्भ किसका है? तो मंदिर को भी एक माता के तौर पर देखा जाता है। अगर व्यापक संदर्भों में देखें तो प्रकृति ही सभी की माँ है यानी वह ईश्वर की भी माँ है।
पुराणशास्त्र में माँ से जन्म लेना या नहीं लेना एक बहुत महत्वपूर्ण धारणा है। माँ से जन्मे बच्चों को योनिज कहते हैं, उदाहरणार्थ कृष्ण और राम। माँ बच्चे को गर्भाशय से जन्म देती है और अपने दूध से उसका पोषण करती है। योनिज बच्चों को एक समय के बाद अपना शरीर त्यागना भी पड़ता है। इसलिए राम और कृष्ण अवतार हैं। मानव शरीर से जन्म लेने के कारण वे नश्वर हैं। इसके विपरीत, विष्णु और शिव स्वयंभू माने जाते हैं क्योंकि वे अयोनिज हैं और इसलिए वे अनश्वर हैं।
भारत में देवियां बहुत महत्वपूर्ण हैं। काली वन की देवी हैं। जब वन खेत में बदल जाता है तो काली, गौरी में बदल जाती हैं, एक ऐसी देवी जो संयमित हैं। इसलिए काली के बाल खुले होते हैं जबकि गौरी के बाल बंधे हुए। जब ब्रह्मा से पूछा गया कि देवी उनकी माँ हैं या बेटी तो उन्होंने उत्तर दिया कि वन के रूप में देवी उनकी माँ हैं और खेत के रूप में देवी उनकी बेटी हैं। इस प्रकार मानवता जंगल से जन्म लेती है और फिर खेत का निर्माण करती है। इसीलिए प्रकृति हमारी माँ है और संस्कृति हमारी बेटी।
युवतियों को देवी के रूप में तैयार किया जाता है, हमें याद दिलाने के लिए कि देवी माँ और बेटी दोनों हैं। वास्तव में देवी माँ, बेटी और बहन तीनों हैं। हिंदू त्रिमूर्ति के संदर्भ में माना जाता है कि देवी ब्रह्मा की बेटी हैं, शिव की पत्नी हैं और विष्णु की बहन हैं। यह कहानी दक्षिणी परंपराओं में लोकप्रिय है और तमिल मंदिरों में देखी जा सकती है।
हिंदू, बौद्ध और जैन धर्मों में महिलाएं व माताएं कलश से जुड़ी हैं। कलश, देवी और स्त्री सिद्धांत का प्रतीक है और इसलिए उसकी पूजा की जाती है। वह दुनिया के उन पहले और महत्वपूर्ण आविष्कारों में से एक है, जिसमें हम भोजन, पानी और आग को जगह-जगह ले जा सकते हैं। यह जन्म के साथ, जीवनभर के महत्वपूर्ण संस्कारों के साथ और अंततः मृत्यु के साथ जुड़ा हुआ है। इसे गर्भ भी कहा जाता है। माँ की कोख को गर्भाशय कहा जाता है और इस तरह गर्भ जन्म से जुड़ा है। अन्य शुभ अवसरों पर भी कलश महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जब कलश को पानी से भरकर आम के पत्तों और नारियल से ढंक दिया जाता है तो उसे पूर्ण-कलश या पूर्ण-कुंभ कहा जाता है। इस रूप में उसे मातृत्व के प्रतीक के रूप में पूजा जाता है।
जैन शास्त्रों में सभी तीर्थंकरों में से मल्लिनाथ का प्रतीक कलश है, क्योंकि कुछ परंपराओं में उन्हें महिला माना जाता है। वे एकमात्र महिला तीर्थंकर हैं। दिगंबर पंथ के जैन इसे स्वीकार नहीं करते हैं, लेकिन श्वेतांबरों के अनुसार चूंकि मल्लिनाथ एक महिला शरीर लेकर जन्मे थे तो वे एक देवी हैं, जिसके बाद वे तीर्थंकर बन गए। तमिलनाडु में मल्लिनाथ स्वामी मंदिर इन तीर्थंकर को समर्पित है।
बौद्ध धर्म में भी कलश महत्वपूर्ण है। जब बुद्ध भूख से व्याकुल थे, तब सुजाता नामक महिला ने उन्हें दूध और चावल से बनी खीर से भरा कलश देकर उनकी भूख मिटाई। इस प्रकार अमृत कलश या प्राचुर्य का मटका बौद्ध धर्म के साथ-साथ जैन धर्म में भी एक प्रतीक है।
इस प्रकार स्त्री रूप जीवन और मृत्यु और जीवन और मृत्यु के चक्र, अर्थात संसार से जुड़ा है। और इसलिए देवियां भारतीय पुराणशास्त्र में एक केंद्रीय भूमिका निभाती हैं।
देवदत्त पटनायक
(प्राचीन भारतीय धर्मशास्त्रों के आख्यानकर्ता और लेखक हैं ये उनके निजी विचार हैं)