समकालीन भारत के सबसे प्रतिबद्ध और सशक्त व्यंग्यकार संपत सरल मीडिया के लिए कहते हैं कि ‘वह दिखता दीये के साथ है पर होता हवा के साथ है’। यहीं बात कृषि संबंधी विधेयकों पर सरकार के लिए कही जा सकती है। वह अपने को किसान के साथ दिखा रही है पर खड़ी असल में कॉरपोरेट के साथ है। इन विधेयकों के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है कि ये किसानों की आजादी के विधेयक हैं पर असल में ये कॉरपोरेट की आजादी के कानून हैं। बहुराष्ट्रीय खाद्य और निर्यातक कंपनियां पहले मन मसोस कर रह जाती थीं कि एक निश्चित मात्रा से ज्यादा कोई भी फसल खरीद कर जमाखोरी नहीं कर सकती हैं, पर अब सरकार ने उन्हें इस बंधन से आजाद कर दिया है। अब वे जितना चाहें उतनी जमाखोरी कर सकती हैं। ऐसे ही कंपनियों को कांट्रैक्ट फार्मिंग या संविदा पर खेती के लिए अखिल भारतीय स्तर के कानूनी प्रावधान उपलब्ध नहीं थे, सरकार ने वह भी उपलब्ध करा दिया है।
सरकार ने ‘फार्मर्स प्रोड्यूस ट्रेड एंड कॉमर्स (प्रमोशन एंड फैसिलिटेशन) बिल 2020’ के जरिए निजी कंपनियों और बड़े कॉरपोरेट को न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी पर खरीद करने की बाध्यता से आजाद कर दिया है। उसके बाद दूसरे विधेयक ‘द फार्मर्स (इम्पावरमेंट एंड प्रोटेक्शन) एग्रीमेंट ऑन प्राइस एश्योरेंस एंड फार्म सर्विसेज बिल 2020’ से बड़े कॉरपोरेट को किसान की जमीन लेकर उस पर खेती करने और किसान को मजदूर में बदल देने की आजादी दी है। तीसरा विधेयक ‘अमेडमेंट ऑफ 1955 इसेंशिएल कमोडिटीज एक्ट’ का है। इसके जरिए सरकार ने कंपनियों को जमाखोरी का खुला अधिकार दे दिया है और इस तरह से दशकों की मेहनत से हासिल खाद्य सुरक्षा को खतरे में डाल दिया है।
सरकार ने कॉरपोरेट फार्मिंग यानी संविदा पर खेती के लिए जो बिल पास किया है उसका नाम ‘द फार्मर्स (इम्पावरमेंट एंड प्रोटेक्शन) एग्रीमेंट ऑन प्राइस एश्योरेंस एंड फार्म सर्विसेज बिल 2020’ है। इस बिल की तारीफ में प्रधानमंत्री कई बार कह चुके हैं कि भारत के किसानों को बेहतर पैदावार के लिए आधुनिक तकनीक की जरूरत है, जो इस कानून के जरिए किसानों को हासिल होगी। पर यह हाथी के दिखाने के दांत हैं। असल में यह बिल किसानों को उनकी अपनी ही जमीन पर मजदूर बनाने वाला कानून है। यह कानून उनकी जमीन को कॉरपोरेट के हाथों में दे देगा और साथ ही उनकी फसल का अधिकार भी कंपनियों के हाथों में चला जाएगा।
इसके मुताबिक कंपनियां एक से पांच साल के लिए किसान की जमीन लेकर उस पर खेती कर सकती हैं। किसान की फसल की कीमत पहले ही तय हो जाएगी और कीमत के भुगतान को लेकर किसी किस्म का विवाद होने पर आपसी समझौता, एसडीएम कोर्ट या अपीलीय अदालत में उसका निपटारा किया जाएगा। अब सोचें, कॉरपोरेट और किसान की कानूनी लड़ाई में किसकी जीत होने की संभावना ज्यादा है? क्या आपको किसी किसान का किसी बड़ी कंपनी के खिलाफ मुकदमा जीतना याद है, वह भी अगर किसान अकेले लड़ रहा हो? यह इस कानून के बाद कृषि सेक्टर की बनने वाली तस्वीर का एक छोटा पहलू है।
मोटे तौर पर यह मान लेना चाहिए कि अब भारत में वह कहानी दोहराई जाने वाली है, जो बरसों से लैटिन अमेरिका, मध्य एशिया और अफ्रीका के देशों में चल रही है। दुनिया भर की बड़ी कंपनियां वहां के गरीब किसानों की जमीन लेकर उन पर खेती कर रही हैं। करोड़ों एकड़ जमीन या तो कंपनियां खरीद चुकी हैं या लीज पर लेकर खेती कर रही हैं। खेती के लायक भूमि का अधिग्रहण पूरी दुनिया में हो रहा है और यह पूरे खाद्यान बाजार को नियंत्रित करने के प्रयासों का हिस्सा है। यह नए रूप में जमींदारी प्रथा की वापसी है। कंपनी राज में लॉर्ड कार्नवालिस ने 1793 में जो स्थायी बंदोबस्त लागू किया था यह उसी का बदला हुआ रूप है। उस समय मुगल काल के जमींदारों की जमीनें या ऐसे किसान, जो खेती नहीं करते थे या लगान नहीं चुकाते उनकी जमीनें नए उभरते जमींदारों को दे दी गईं। उन्होंने ‘भूमि कर’ दिए और अपने हिसाब से खेती की। जितने छोटे किसान थे वे उस व्यवस्था में तबाह हुए और बंगाल में एक नए बंगाली भद्रलोक का उदय हुआ।
उसी तरह से नई व्यवस्था में छोटे-बड़े किसानों की जमीनें बड़ी राष्ट्रीय, बहुराष्ट्रीय कंपनियों को मिलेंगी, जिसमें वे अपनी मर्जी से फसल उपजाएंगी, सरकार को लगान देंगी और किसान से मजदूरी कराएंगी। इससे सरकार की लगान की आय बढ़ेगी। सरकार ने कहा नहीं है पर तय मानें कि किसान और कंपनी के बीच खेती का जो कांट्रैक्ट होगा उस पर सरकार टैक्स वसूलेगी। बहरहाल, इस कानून से किसान धीरे धीरे अपने जमीन पर मालिकाना हक गंवा देंगे। इसकी शुरुआत पट्टे पर जमीन देने से होगी, लेकिन अंततः उनकी जमीन बिक जाएगी।
तीसरा विधेयक आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 में संशोधन का है। इसमें बदलाव करके सरकार ने किसान, गरीब और देश के आम लोगों की खाद्य सुरक्षा को खतरे में डाला है। इस कानून के जरिए सरकार ने जमाखोरों को असीमित मात्रा में अनाज खरीद कर उनके भंडारण की इजाजत दी है। पहले उनको एमएसपी पर खरीद से मुक्त किया गया ताकि वे मनचाहे दाम पर किसान से अनाज खरीद सकें। उसके बाद उनको किसान की जमीन लेकर खेती करने की इजाजत दी गई ताकि वे मनचाही फसल उगा सकें और उसके बाद जमाखोरी के कानून से मुक्ति दे दी गई ताकि वे मनचाही मात्रा में अनाज खरीद कर स्टोर कर सकें। बड़ी कंपनियां, निर्यातक कंपनियां बड़ी मात्रा में अनाज खरीद कर उनका भंडारण करेंगी और महंगी कीमत पर बेच कर मनचाहा मुनाफा कमाएंगी।
सोचें, भारत सरकार इस समय गर्व से कह रही है कि वह देश के 80 करोड़ गरीबों को पांच किलो गेहूं या चावल और एक किलो चना दे रही है। सरकार यह अनाज इसलिए दे पा रही है क्योंकि भारतीय खाद्य निगम के गोदाम अनाज से भरे हैं। अगर सरकार की बजाय निजी कंपनियां खरीद करेंगी और जमाखोरी के कानून से मुक्त होकर मनचाही मात्रा में उसे स्टोर करके रखेंगी तो सरकार किसी आपदा की स्थिति में कहां से अनाज बांट पाएगी? अगर सरकार को किसी आपदा कि स्थिति में अनाज बांटना हुआ तो उसे निजी कंपनियों से मुहंमांगी कीमत पर खरीदना होगा। सामान्य स्थितियों में भी ये निजी कंपनियां जरूरत से ज्यादा मात्रा में खाद्य सामग्री स्टोर करेंगी और अपने हिसाब से बाजार की कीमतों को कंट्रोल करेंगी। यह तय मानें कि इस बिल के कानून के बनने के बाद पूरे देश में महंगाई बढ़नी शुरू होगी। खाने-पीने की हर चीज की कीमत बाजार और ये कंपनियां तय करेंगी।
ये तीनों बिल साझा तौर पर देश की खेती लायक जमीन कॉरपोरेट के हाथों में दे देंगे और धीरे धीरे बीज व पानी के स्रोतों पर भी उनका कब्जा होगा। किसान की फसल पर उनका कब्जा होगा और अनाज एफसीआई की बजाय निजी कंपनियों के वेयरहाउस में स्टोर किया जाएगा। ध्यान रहे अदानी को आटा, बेसन, तेल आदि सब कुछ बनाना है और अंबानी को अपनी लाखों दुकानों की चेन से इन्हें बेचना है। ऐसा नहीं है कि ये तीनों विधेयक सिर्फ किसानों की किस्मत में स्थायी रूप से अंधेरा करने वाले हैं, मध्य वर्ग भी इससे बुरी तरह से प्रभावित होगा। खाने-पीने की चीजों की महंगाई बहुत जल्दी सारे भ्रम दूर कर देगी।
अजीत द्विवेदी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)