सवाल है कि विपक्ष क्या करे? सबसे पहले तो विपक्ष को यह डर छोड़ना चाहिए कि सरकार उसके नेताओं को किसी मामले में फंसा देगी। दूसरे, इस मिथक को तोड़ना चाहिए कि अभी राजनीति करने का समय नहीं है। राजनीति करने का कौन सा समय उचित होता है? क्या सिर्फ चुनाव के समय राजनीति होगी? जब देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था राजनीति पर आधारित है तो राजनीति 24 घंटे और 365 दिन होनी चाहिए, चाहे हालात जैसे हों। विपक्ष को यह समझना चाहिए कि ‘अभी राजनीति करने का समय नहीं है’ से ज्यादा राजनीतिक लाइन कुछ नहीं है। यहीं लाइन बोल कर सत्तापक्ष खुद राजनीति करने में लगा है। देश इस समय चौतरफा संकट में फंसा हुआ तब सत्तापक्ष ने कितनी राजनीति की है, इसे मध्य प्रदेश से लेकर राजस्थान, गुजरात और मणिपुर तक देखा जा सकता है। असम में कोरोना का भारी संकट है पर वहां के स्वास्थ्य मंत्री मणिपुर के विधायकों को मैनेज करने में लगे थे। सत्तारूढ़ पार्टी बिहार में विधानसभा चुनाव की तैयारी कर रही है और देश भर में 75 वर्चुअल रैलियां चल रही हैं। गुरुवार को जिस दिन देश में 17 हजार के करीब कोरोना के मामले आए उस दिन भी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष की मध्य प्रदेश में वर्चुअल रैली हो रही थी।
उसकी रैलियां भी मामूली नहीं होती हैं, हजारों की संख्या में गांव-गांव में एलईडी स्क्रीन लगाए जाते हैं और पार्टी की जिला इकाई लोगों को मोबिलाइज करके उन्हें नेताओं के भाषण सुनवाती है। विपक्ष यह काम इतने बड़े पैमाने पर नहीं कर सकता है पर उसके नेता भी ये काम कर सकते है। जैसे कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने तीन-चार बार वर्चुअल प्रेस कांफ्रेंस की। उनकी प्रेस कांफ्रेंस का रिस्पांस अच्छा था। उन्होंने अपनी बात कही और मीडिया को मजबूरी में उसे छापना भी पड़ा। इस तरह की प्रेस कांफ्रेंस दूसरे विपक्षी नेता भी कर सकते हैं। प्रदेश के स्तर पर अगर तेजस्वी यादव या अखिलेश यादव, मायावती, एमके स्टालिन या दूसरे नेता करेंगे तो मीडिया की मजबूरी होगी वह उसे दिखाए और छापे। अपनी वर्चुअल प्रेस कांफ्रेंस ये नेता अपनी पार्टियों की वेबसाइट और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स के जरिए भी ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचा सकते हैं। अगर विपक्ष का नेता लगातार प्रेस कांफ्रेंस करे और किसी एक बात पर लोगों को जागरूक करने का प्रयास करे तो उसके नतीजे निकलते हैं। दूसरी बात, बिहार में जदयू ने अपनी पार्टी के नेताओं के साथ वर्चुअल मीटिंग की है। भाजपा भी अपने नेताओं के साथ वर्चुअल मीटिंग्स कर रही है और सोनिया गांधी ने भी विपक्षी नेताओं के साथ एक बार वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए मीटिंग्स की थी।
विपक्ष की ओर से ऐसी मीटिंग्स अपवाद की तरह हैं। इक्का-दुक्का ही ऐसी बैठकें हो रही हैं। विपक्ष को चाहिए कि जैसे भाजपा वर्चुअल रैली कर रही है उस तरह से कम से कम वह अपनी पार्टी के नेताओं के साथ तो वर्चुअल मीटिंग करे। उन्हें मुद्दे समझाए और जिला स्तर पर उन नेताओं को ऐसी वर्चुअल मीटिंग्स के लिए प्रेरित करे। सरकार ने जब तक राजनीतिक गतिविधियों पर रोक लगा रखी है तब तक इस तरह से राजनीतिक गतिविधियां चलाई जा सकती हैं। विपक्षी पार्टियों को आपस में भी वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए संवाद करना चाहिए, इसकी भी खबर मीडिया को मजबूरी में ही सही दिखानी होगी। पिछले कुछ समय से कांग्रेस के प्रवक्ता टेलीविजन पर बहसों के दौरान आक्रामक तेवर दिखा रहे हैं। वे भाजपा के साथ साथ एंकरों को भी भाजपा का प्रवक्ता बता रहे हैं और उन्हें एक्सपोज कर रहे हैं। इससे लोगों को भी लगने लगा है, विभाजन स्पष्ट होता जा रहा है और इस वजह से मीडिया का एक बड़ा वर्ग विश्वसनीयता गंवा रहा है।
यह काम राज्य और जिला के स्तर पर कांग्रेस और दूसरी विपक्षी पार्टियां कर सकती हैं। देश में बढ़ती महंगाई और पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमतों के विरोध में इन दिनों कांग्रेस के कुछ नेता छह-सात साल पुराने भाजपा नेताओं के भाषण दिखा रहे हैं। 2014 के चुनाव में नरेंद्र मोदी की ओर से दिए गए नारे दिखा रहे हैं, उनके पोस्टर शेयर कर रहे हैं। इसका असर लोगों के दिल दिमाग पर होगा। उस समय भाजपा ने बहुत आक्रामक तरीके से पेट्रोल-डीजल की महंगाई का मुद्दा बनाया था। ऐसे काम दूसरी पार्टियां भी कर सकती हैं। विपक्ष अगर लड़ना चाहे और मुद्दा उठाना चाहे तो उसे आज प्लेटफॉर्म की कमी नहीं है। यूट्यूब चैनल, डिजिटल चैनल, फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सएप जैसे प्लेटफॉर्म उनके पास भी हैं। उनके प्लेटफॉर्म सरकार की तरह पॉपुलर नहीं हैं, पर अगर वे लगातार उस पर सक्रिय रहे और एक बात बार बार कहते रहे तो उसका असर होगा।
हरिशंकर व्यास
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)