मुझे खुशी है कि सर्वोच्च न्यायालय ने उसी बात पर मुहर लगा दी, जिसे मैं पिछले 30 साल से अकेला कहता चला आ रहा हूं। देश में किसी नेता या पार्टी की हिम्मत नहीं है कि वह आरक्षण का विरोध करे। सरकारी नौकरियों में तो जातीय या सामूहिक आधार पर तरह-तरह के थोक आरक्षण लागू कर दिए गए हैं। अब शिक्षा संस्थाओं में भी जातीय आधार पर 50 प्रतिशत आरक्षण देने की अर्जी सर्वोच्च न्यायालय में लगा दी गई थी। यह अर्जी तमिलनाडु के लगभग सभी राजनीतिक दलों ने मिलकर लगाई थी। अदालत ने इसे रद्द कर दिया और कहा कि आरक्षण कोई मूलभूत अधिकार नहीं है। अब कुछ नेताओं ने मांग की है कि आरक्षण के प्रावधान को संविधान की नौवीं सूची में शामिल कर लिया जाए ताकि उसमें कभी कोई संशोधन न हो सके।
इस सूची का निर्माण 1951 में नेहरु-काल में हुआ था। इसमें अब तक 284 कानून जुड़े हुए हैं। मेरा मानना तो यह है कि यह तो मानव-निर्मित संविधान है। जो ईश्वर-निर्मित ग्रंथ माने जाते हैं, उनके प्रावधानों को भी देश-काल की जरुरत के हिसाब से समायोजित कर लिया जाना चाहिए। मैं स्वयं हमारे दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों आदि के आरक्षण का घोर समर्थक रहा हूं लेकिन विश्वनाथप्रताप सिंहजी के जमाने के बाद से मैं यह महसूस करने लगा हूं कि आरक्षण सामाजिक न्याय नहीं, सामाजिक अन्याय का सबसे बड़ा हथियार है। हमारे करोड़ों-दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों में से मुट्ठीभर याने कुछ सौ परिवारों ने आरक्षण के चलते सरकारी नौकरियों पर कब्जा कर रखा है।
इन चतुर, चालाक, संपन्न और शिक्षित लोगों को अपने ही करोड़ों वंचित लोगों की कोई परवाह नहीं है। यह एक नया सवर्ण वर्ग देश में खड़ा हो गया है। अपनी योग्यता से चुने जानेवाले लोग भी इस वर्ग की वजह से बदनामी का ठीकरा अपने सिर पर ढोते रहते हैं। कई आरक्षित रोगी आरक्षित डाक्टर से इलाज करवाने में संकोच करते देखे गए हैं। इसीलिए नौकरियां तो शुद्ध योग्यता के आधार पर ही दी जानी चाहिए जबकि शिक्षा और चिकित्सा में यदि 75 प्रतिशत तक भी आरक्षण रखा जाए तो कोई बुराई नहीं है लेकिन वह जन्म या जाति के आधार पर नहीं, जरुरत के आधार पर होना चाहिए। वह थोक के बजाय व्यक्तिशः गुण-धर्म के आधार पर दिया जाना चाहिए। उसका आधार शुद्ध आर्थिक होना चाहिए। यदि ऐसा हुआ तो आरक्षितों की ‘मलाईदार परतें’ अपने आप छंट जाएंगी।
डा. वेदप्रताप वैदिक
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं )