सोचें, नया दशक याकि अगले दस वर्षों में हमारा क्या होना है? हम वक्त काटेंगे या बुद्धि-हाथ-पांव के निष्काम पुरूषार्थ में कोई मंजिल, कोई शिखर पाएंगे? इस सवाल में दो पेंच है। एक, निष्काम कर्म का और दूसरा मंजिल का। इन दोनों में यदि हम सच्चे होते तो हमारा वह इतिहास और वह वर्तमान नहीं होता, जो है! अपने अध्यात्म, अपनी गीता ने दुनिया को भले ज्ञान दिया हो कि कर्म निष्काम होना चाहिए। मतलबभूख-वासना-लालसा लिए हुए नहीं होना चाहिए लेकिन इस बात को दुनिया ने अपनाया और हमने नहीं! जरा सोचे कि भारत में कितने लोग है जो बिना फल के कर्म करने की प्रवृति लिए हुए है?क्या भारत के दफ्तर में, भारत के तंत्र में बिना फल के कोई चक्का घूमता है? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मनोवृति बतलाने वाला यह जुमला सटीक है कि इससे मेरा क्या! पर सोचे, क्या नरेंद्र मोदी या अमित शाह इसके अपवाद है? इनकी राजनीति, इनके सकाम कर्म से भी तो चुनाव जीतने की भूख, सत्ता, और पॉवर के फल की कामना जाहिर होती है। यही स्थिति सभी नेताओं, सभी वर्गों, सभी नागरिकों की है। जैसे मोदी-शाह सोचते हैं वैसे बाकी नेता सोचते हैं। मैं सोचता हूं, आप सोचते हैं।निष्काम कर्म नहीं मगर चाहना पांच ट्रिलियन डॉलर वालीआर्थिकी की! कर्म, काबलियत नहीं मगर पद-पैसा-पुरस्कार-पावर की चाहत सर्वत्र फिर वह आरक्षण से हो, सरकारी नौकरी से हो, क्रोनी पूंजीवाद से हो, नेता, ठेकेदार, डॉक्टर बन कर हो या आईएएस-आईपीएस, वकील, जज, पत्रकार बन कर।
वैश्विक विकास, सभ्यताओं के उत्थान व पतन, अलग-अलग देशों की दास्तां को समझते हुए अपना अब मानना है कि जो व्यक्ति, जो कौम मेहनत, कर्म, पुरषार्थ को निष्काम भाव करने में संस्कारित होती है वही उन्नति के शिखर लिए हुए होती है। और जान ले कि निष्काम और सकाम, अग्नि और अग्निहीन, उर्जा और उर्जाहीन, क्रिय और अक्रिय कर्म का जो फर्क है वह इंसान की प्रकृति-प्रवृति का वह अंतर है जिससे अमेरिका के नासा में मौलिक अपोलो मिशन बनता है तो भारत के अंतरिक्ष केंद्र में दशकों बाद चंद्रयान संभव होता है। अमेरिका की प्रयोगशाला में वैज्ञानिक की खोज निष्काम कर्म से स्वंयस्फूर्त होती है जबकि भारत की प्रयोगशालाएं उपासंग भी नहीं क्योंकि उसमें सब चेहरे फल की लालसा का अक्रिय कर्म लिए हुए होते है।
भारत का ‘बनना’ क्योंकि लोगों के खुद के ‘बनने’व्यक्ति की भूख, फल लालसा की सीढियों से है तो इसी में सबकुछ गुंथा हुआ है। यहीं बतौर व्यक्ति, बतौर नागरिक, बतौर राष्ट्र-राज्य हमारी नियति, प्रवृत्ति व निवृति है। तो पहली बात, लोगों की फल पाने की लालसा, अपने‘बनने’ का ख्याल।मतलब सभी कर्म से पहले ही यह जद्दोजहद लिए हुए होते है कि कैसे सशक्त हुआ जाए। इस भूख को कैसे समझे? तो जरा गौर करें, अपने अगल-बगल, घर-परिवार में प्रवृत्तियों पर! आप पाएंगे कि आचरण में स्वच्छंदता बढ़ रही है तो वह इस धुन के साथ है कि पैसे और पावर के भारत में खैरात, लूट और लाठी के जितने मौके हैं उन्हें कैसे अधिकाधिक साधा जाए! भारत और अमेरिका या दुनिया का फर्क यह है कि बाकी जगह अर्जन से, निष्काम पुरूषार्थ से मंजिल पाई जाती है। अमेरिका, ब्रिटेन में कोई सिविल सर्विस, सरकारी नौकरी या डॉक्टर, नेता, ठेकेदार, उद्योगपति बनने का काम पैसे-पावर की भूख से प्रेरित नहीं होता है, बल्कि वह प्रोफेशनल सुख, मिजाज, निष्काम कर्म की उन प्रवृत्तियों से होता है,जो बुद्धि, मौलिक सोच व सेवा, रिसर्च, कंपीटिशन, नई खोज-नए उत्पाद, धुन में प्रकट है। इसी का अंत नतीजा होता है जो वहां व्यक्ति जीवनको सार्थकता, संतोष में जीया होता है तो समाज-देश भी मौलिकता में सुख-समृद्धिकी और बढ़ता हुआ होता है।
अब यह औसत बुद्धि के लिए धुंधली और फिजूल बात हो सकती है। पर जान लिया जाए कि सन् 1947 से सन् 2020 के बीच भारत और उसके समवर्ती देशों के सफर में विकास का जो फर्क रहा है और अगले दस वर्षों में जो होना है वह कुल मिलाकर देश के तंत्र व नागरिकों की मनोवृति, प्रवृत्ति, निवृति का निष्कर्ष है। अपना मानना है किअमेरिका, यूरोप से लेकर अफ्रीका दस साल बाद (सन् 2030 में)विकास की बुलंदियों में मंगल ग्रह की और बढ़े हुए होंगे तो ठीक विपरीत पूरी दुनिया में भारतीय उपमहाद्वीपअपने केओस का वह वक्त लिए हुए होगा, जिसमें हमें अफ्रीका से भी गया गुजरा माना जाएगा! पृथ्वी के बाकी हिस्सों, अफ्रीका और लातीनी अमेरिकाव दक्षिण एशिया से इतर एशियाई देश किस तेजी से बुद्धि-पुरूषार्थ विन्यास में मंजिल बनाए हुए हैं, इस पर मैं कल लिखूंगा लेकिन इन सबके परिप्रेक्ष्य में भारत की इस हकीकत को नोट रखें कि भारत राष्ट्र-राज्य की नींव में, हम लोगों के डीएनए में भूख, खैरात, लूट के वायरस ने मनोवृत्ति को जैसा करप्ट बनाया हुआ है वह समाज में बिखराव के साथ नए दशक में और घना होगा।
संदेह नहीं जैसे दुनिया राजनीति से मुश्किलों में है वैसे भारत भी राजनीति का मारा है। 21वीं सदी के दूसरे दशक का त्रासद पहलू है जो दुनिया जब गांव में बदल रही थी, भूमंडलीकरण हो रहा था, बुद्धि-पुरूषार्थ की वैश्विक उड़ान में मानव सभ्यता ब्रह्माण्ड में बस्ती बनाने की ओर चल पड़ी थी तभी इस्लाम ने ऐसी चुनौतियां पैदा कीं, वह राजनीति बनाई, जिससे अमेरिका, यूरोपीय सभ्यता झनझना गई और सब तरफ राष्ट्रवादी नेता पैदा होने लगे। भूमंडलीकरण और उदारवाद को श्राप माना जाने लगा। सभ्यताओं के संघर्ष के सिनेरियो को पंख लगे तो राष्ट्र-राज्य के घरौंदों की राजनीति होने लगी।
राजनीति बांधती है। दायरा छोटा बनाती है। बुद्धि भ्रष्ट करती है। इसमें भारत को श्राप इसलिए ज्यादा है क्योंकि हम बुनियादी तौर पर बिना मौलिक राजनीतिक चिंतन-दर्शन के हैं। गुलामी ने हमारी बुद्धि को कुंद बना कर हमें अंधविश्वासों, भक्ति और अंधकार में जीने का आदी बनाया हुआ है। अमेरिका के संविधान निर्माताओं ने इतिहास के तमाम अनुभवों, मानव सभ्यता के विकास की तमाम अवस्थाओं को समझते-बूझते हुए अपने यहां जिस मौलिक अंदाज में लोकतंत्र बनाया वैसी मौलिकता हमारे नियंताओं में क्योंकि नहीं थी और वे इधर-उधर के टेंपलेटों पर अंग्रेजों की बनाई व्यवस्था को अपनाने के लिए मजबूर थे तो 1947 सेवहीं होता आया है जो गुलामी की प्रवृत्तियों में सहज-सामान्य है। इसी में हाकिमशाही है तो लाठी, लूट और खैरात बांटने के वे तमाम नुस्खे हैं, जिनसे न आजादी का संस्कार बनता है न बुद्धि का विकास हो पाता है और न निष्काम पुरूर्षाथ-ऊर्जा को पंख लगते हैं। बुद्धि-बौद्धिकता-मौलिकता के संस्कार नहीं हैं तो सत्य की साधना के साथ वह मौलिक विचार, राजनीति, अनुसंधान, सृजन तो संभव ही नहीं जो सभ्यतागत विकास की बुनियाद में निष्काम कर्म के सहज परिणाम होते है।
मैं भटक रहा हूं। पर हकीकत है कि दुनिया के देशों में राजनीति के बावजूद, अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप, ब्रिटेन में बोरिस या जापान में आबे, रूस में पुतिन और चीन में शी जिनफिंग की व्यवस्थागत विविधताओं के बावजूद 2019 में ज्ञान-विज्ञान की मौलिक उपलब्धियों (गर्भ में भ्रूण के डीएनए बदल कर बच्चे की डिजाइनिंग के चीनी वैज्ञानिक के दुस्साहसी अपराध से ले कर ब्रह्माण्ड के ब्लैक हॉल, अनबूझी ऊर्जा की थाह पाने जैसी मौलिक वैज्ञानिक धुन) की भरमार है और भारत खाली है तो वजह गहरी है। बाकी तमाम देशों ने 2019 मेंसृजनात्मक उपलब्धियों, वैश्विक कारोबार की उपलब्धियों के एवरेस्ट पाए हैं और हम आदिम राजनीति, खैरात-लूट-लाठी के आदिम तंत्र, नकली व्यवस्थाओं से दुनिया के डुप्लीकेट बने हुए हैं तो वजह डीएनएजन्य प्रवृत्तियां है।
इसलिए भारत सन 2030 में बिना क्रोनी पूंजीवाद, लूट, भूख और खैरात में जी रहे लोगों से जुदा हो यह संभव नहीं लगता। उलटे बहुत संभव है कि सन् 2030 में पावर, पैसे और भूख की भारत वह मारामारी लिए हुए हो, जिस पर दुनिया में यह आश्चर्य और बढ़े कि वैश्विक धक्के-विकास के बावजूद 135 करोड़ लोगों का यह घेटो कैसे!
हरिशंकर व्यास
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं