17 दिसंबर, 1987 को प्रकाशित ये व्यंग फिर प्रकाशित किया जा रहा है। इसकी बागनी देखिये ये आज के दौर में मीडिया पर और भी ज्या पुख्ता तरीके से लागू होता है और व्यंग करता है कि किस तरह अखबार चल रहे हैं?
यदि आप पर्याप्त संवेदनशील हैं तो आपके लिए अखबार कविता की जगह ले सकता है और कोई जरूरी नहीं कि वह किसी हास्य कविता की ही जगह ले। यदि आपके इंसानी शरीर में थोड़े आंसू बकाया हैं तो आप रो भी सकते हैं। यो भी अक्सर अखबार इतना तो चौकाता ही है कि आपकी सिर पीटने की तबियत होती है। खोपड़ी आप अकसर पढ़ते-पढ़ते खुजला लेते हैं क्योंकि आपको कहीं भी कुछ भी पढ़ने को मिल सकता है। अखबार में हत्याकांडों का धारावाहिक अन्याय का एकांकी, सामूहिक दुष्ठता के निबंध भ्रष्टाचार के खंडकाव्य, राजनीतिक पड्यंत्रों के लघु उपन्यास और मूर्खताओं के छंद, सॉनेट और हाइकू पढ़ने को मिलते हैं। आप पर निर्भर है कि आप उसमें डूबते-उतराते चले जाएं या तटस्थ पाठक की मुद्रा अपना ले। इतने तटस्थ कि एक दिन ऐसा आए कि आप अनुभूतिशून्य हो जाएं और आप अखबार पढ़ते रहें, पर उनका असर होना बंद हो जाए।
जैसे नियमित पूजा करने वाले एक ऐसी प्रक्रिया से गुजरते रहने के आदी हो जाते हैं, जब उनका ईश्वर से संबंध टूटकर केवल मूर्ति से रह जाता है। जैसे किसी का अखबार में व्यक्त जो देश है, उससे संबंघ टूट जाए। यदि आपकी अखबार पढ़कर सिर पीटने की आदत है तो यह अध्ययन का विषय होगा कि बरसों पढ़ते रहने के बाद आपके सिर में क्या अंतर आया? पता लगा, सिर एक तरफ से चपटा हो गया, जैसे आज सुबह मैंने सिर पीटा। आप कारण जानना चाहेंगे, ‘मंदिर’ शब्द को लेकर। अब इतने सिरदर्द कहिय या उत्तरदायित्व मैंने सिर पर उठाए पर हिन्दुत्व की रक्षा का भार मैंने नहीं उठाया। कारण यह कि बचपन से ही ब्राह्मण बुजुगों ने मुझे समझा रखा था कि अस परित्र भारतभूमि में धर्म की रक्षा का काम आदिकाल से स्वयं ईश्वर ने संभाल रखा है। अतः व्यर्थ परेशान होने की जरूरत नहीं है।
फिर भी मैंने भाषा पढ़ी थी और मेरे संस्कार भी थे कि मैं ‘मंदिर’ शब्द को जरा पवित्र अर्थ में ही लेता था। हमारे यहां तो मंदिर और भगवान् पर्यायवाची ही थे। फिर भी जब मैंने ‘कलामंदिर’ शुब्द पढ़ा या हमारे उज्जैन में तृप्ति मंदिर नाम का एक होटल हुआ करता था तो मुझे कोई यह सोचकर धक्का नहीं लगा कि हाय, मंदिर जैसे पावन शब्द का दुरुपयोग हो रहा है। अक्सर शहरों में बोर्ड पेंट करने वाले अपनी दुकान का नाम ‘कलामंदिर’ रख देते हैं। मुझे कोई धक्का नहीं लगा। अरब देशों में कोई इसी अर्थ में मस्जिद या ईसाई देशों में चर्च शब्द का प्रयोग कर ले तो वहां बावैला मच जाए पर हमारा मामला इतना कमजोर नहीं है। हमारे माथे इतनी जल्गी नहीं ठनकते। लेकिन जब मैं ही पहली बार बंबई आया और मैंने दूध की दुकान का नाम ‘दुग्ध मंदिर’ पढ़ा, तब ‘द’ पर दीर्ध मात्रा लगी होने का शॉक तो अपनी जगह था ही, मुझे यह भी लगा कि यार, ये ‘मंदिर’ शब्द का दुरुपयोग है।
फिर भी चूंकी दूध अच्छा था, मैं अपने विचार को उसके साथ पीकर रह गया। आज सुबह अखबार पढ़ते हुए मैंने सिर यों पीटा कि महाराष्ट्र के भंडारा जिले के गांवों में जो साढ़े सात हजार शौचालय बनाए जा रहे हैं, उनको ‘शौच मंदिर’ कहा जा रहा है। अब यह तो जिसे कहते है, हद की भी लिमिट हो गई। एक पवित्र से शब्द की ऐसी बीभत्य अर्थ तक ऐसी-तैसी की जा सकती है, यह इसी देश में संभव है। नेहरू ने जब कारखाना-बांध निर्माण -कार्य को मंदिर कहा था, तब शायद उन्होंने इस हद तक नहीं सोचा था कि एक दिन ऐसा आएगा जब ‘शौच मंदिर’ बनने लगेगें। इन शौचालयों की खूबी यह है कि इनमें भंगी सफाई नहीं करेंगे। इनमें भंगी प्रवेश नहीं करेंगे। इसी कारण शायद इन्हें मंदिर कहा जाता हो। जो भी हो, समाचारों के मंदिर अखबार रोज सिर पीटने की पर्याप्त सामग्री देते हैं।
स्वर्गीय शरद जोशी
लेखक अपने समय के सबसे बड़े व्यंगकार थे