बुरे वक्त में पृथ्वी का कंपकंपाना

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जीवन बार-बार, लगातार व्यक्ति विशेष के आगे सवाल बनाता है यह कैसा वक्त? पर पृथ्वी के पौने आठ अरब लोग कब ऐसा सोचते हैं कि यह कैसा वक्त? तब जब बुरा वक्त आता है। अच्छा वक्त होता है तो न इंसान और न इहलोक की आबादी वक्त पर फोकस बनाती हैं। पिछले सौ साल के इतिहास की हेडलाइंस याद करें या पूरी मानव सभ्यता की टाइम लाइन पर गौर करें तो सामूहिक खुशी वकिलकारी का कौन सा वक्त इतिहास में अंकित है? पूरी पृथ्वी के निवासियों द्वारा खुशी में महीनों झूमना तो छोड़िए, एक-दो दिन भी झूमने की कोई बात नहीं मिलेगी। भूमंडलीकरण याकि पृथ्वी के गांव में बदलने के बाद भी मानव का सामूहिक व्यवहार खुशी, जीत, उपलब्धियों की सामूहिक किलकारी का वक्त लिए हुए नहीं है। क्या गजब बात है! इसका अर्थ है मानव चेतना-अवचेतना में आनंद, खुशी का वक्त उसका निज होता है इसलिए ‘महाखुशी’ ‘महाआनंद’ जैसा कोई शब्द डिक्शनरी में नहीं बना लेकिन चिंता, मौत के सामूहिक रोने-धोने के लिए महामारी, विपदा, आपदा जैसे तमाम शब्द हैं!

वक्त तब कचोटता है, तब ठहरता है, तब सन्नाटा लिए होता है, तब रूदाली और गम में डूबा हुआ होता है जब वक्त मानव के बस में नहीं होता। जब वक्त मौत लिए होता है। पूरी दुनिया को याद है पहले विश्वयुद्ध का विनाश, दूसरे विश्व युद्ध का विनाश, 1918 की स्पैनिश फ्लू की महामारी का वक्त। लेकिन जरा याद करें कि पिछले सौ सालों में ही मानव ने, मानव सभ्यता ने कितनी अकल्पनीय उपलब्धियां पाई लेकिन क्या कोई ऐसा वक्त याद है, जिस पर पूरी दुनिया आनंद, खुशी में झूमी हो वैसे ही जैसे महामारी, महायुद्ध की मुश्किलों, विलाप को पृथ्वी के समस्त प्राणी अपनी स्मृतियों में सामूहिक तौर पर लिखे हुए हैं!

अपना मानना है मानव का चंद्रमा पर कदम रखना वह क्षण (उपलब्धि, खुशी, आनंद के ऐसे कई और क्षण भी तलाशे जा सकते हैं) था, जो मानव सभ्यता के मनोविश्व में महाआनंद, महासंतोष के वैश्विक जश्न का बतौर स्मृति वक्त दर्ज होना चाहिए था। लेकिन वह दिन भी कुल मिला कर कुछ दिन की हेडिंग लिए हुए था।बहुत अजीब बात है। इंसान प्रकृति पर जीतता रहा है। ज्ञान, बुद्धि, सत्यशोधन में वह देवता जैसी उपलब्धियां बनाते हुए वक्त की मंजिलों में देवता होता गया है। बावजूद इसके मानव चेतना के वक्त की स्मृतियों में उपलब्धियों की महाखुशी, उसका वैश्विक जश्न जैसा कोई भाव या चिन्ह नहीं है।

तभी अपना मानना है कि दुनिया गांव बनी हो या भूमंडलीकरण हो मानव के दिमाग का रसायन, डीएनए, उसके जीवाणु मूलतः तब भी व अब भी और आगे भविष्य में भी वक्त को अपनी चिंता में समेटे हुए होता है। उसमें अपनी चिंता पहली प्राथमिकता है। फिर एक-एक कर चिंता के अलग-अलग आयाम याकि स्वार्थ, नीचता, झूठ, भूख में वह इतना खोया होता है कि न वक्त का सत्य याद रहता है और न जीवन का! तभी महामारी, विपदा, आपदा का अचानक आ पड़ना इंसान को बुरी तरह झिंझोड़ डालता है। उस बुरे वक्त की तारीखें, उनकी हेडलाइन हमेशा याद रहती हैं, उसे याद करके लोग कंपकंपाते रहेंगे।

सो, वक्त पर पृथ्वी के पौने आठ अरब लोगों, पूरी पृथ्वी के संदर्भ में विचार क्या और कैसे हो? कोरोना वायरस से यदि वैश्विक गांव आज कंपकंपा रहा है तो अपने घर, अपने परिवार, अपने समाज, अपने देश में बैठा व्यक्ति विशेष क्या वैश्विक गांव का ख्याल लिए हुए होगा? जवाब आप ही तलाशें! सोचें कि मैं और आप प्राथमिक तौर पर अपनी चिंता में हैं या दुनिया की चिंता में हैं? डोनाल्ड ट्रंप, राष्ट्रपति शी जिनफिंग, नरेंद्र मोदी, बोरिस जॉनसन, मर्केल या एक्सवाईजेड कोई भी नेता अपनी चिंता, अपने घर, अपने दायरे की चिंता में है या बुरे वक्त, महामारी के वक्त भूमंडलीकृत गांव, वैश्विक परिवार की चिंता कर रहा है? सभी अपने से केंद्रीत है।

मतलब महामारी, महा विपदा, महा आपदा में इंसान की सामूहिक रूदाली, चिंता के बावजूद बुरे वक्त में भी सब अपनी-अपनी ही चिंता करते हुए मिल रहे हैं। ऐसा क्यों? शायद इसलिए कि मानव फितरत, उसकी मानसिक बुनावट का सार्वभौमिक तथ्य व्यक्ति के दिमाग का ‘स्व’ स्वंय, निज सोच, निज स्वतंत्रता, निज उद्यम, निज चिंता में बुना, गुंथा और बढ़ा हुआ होना है। आदिमानव भी याकि अफ्रीका की गुफा के चिपांजी क्योंकि दिमागी कीड़ों की कुलबुलाहट से पैदा बुद्धि चेतना में गुफा से बाहर निकले और उससे फिर शुरू हुआ होमो सेंपियंस का सफर तो मूल बात दिमाग विशेष की चेतना से पैदा ऊर्जा का है। जाहिर है वक्त व्यक्ति बोध का मसला है न कि सामूहिक चेतना का!

मामला उलझ रहा है। विचारा जाए कि अफ्रीका की गुफा में बैठे आदि मानव के दिमागी पट खुलने की अवस्था पर और इस वक्त अंतरिक्ष में स्पेस स्टेशन में बैठे अंतरिक्षयात्रियों पर। आदि मानव और अंतरिक्ष मानव दोनों के लिए पृथ्वी के मौजूदा वक्त का, बुरे वक्त का, महामारी के वक्त का मतलब नहीं है। पृथ्वी का समय, पृथ्वी की महामारी, महामारी का वक्त अंतरिक्ष मानव (यह मानते हुए कि वह तो अंतरिक्ष के सफर के लिए निकला हुआ है) के लिए उतना ही बेमानी है, जितना लाखों सहस्त्राब्दियों पूर्व अफ्रीका की गुफा में बैठे आदिमानव के लिए था। दोनों ही वक्त की चेतना व बोध के बिना थे या हैं।

हां, वक्त इंसान का ही आविष्कार है (इस पर आगे लिखूंगा)। फिलहाल मूल मुद्दा है कि इंसानी फितरत में बुरा वक्त क्यों ज्वालामुखी व सामूहिक रूदाली बनवाता है जबकि खुशी-आनंद-उपलब्धि का वक्त सामूहिक तालियों की इतिहास तारीख लिए नहीं होता? टेढ़ा मामला है। या तो यह अर्थ निकालें कि जीवन का अस्तित्व जब खतरे में आता है, मतलब मरण और मौत क्योंकि व्यक्ति विशेष के दिमागी कीड़ों का भी मरण है तो महामारी का सामूहिक सन्नाटे में, सामूहिक गमी में बदलना स्वभाविक है। मौत के वक्त को सब एक भाव लेते हैं जबकि खुशी, आनंद, संतोष, उपलब्धि के पॉजिटिव मामले दिमागी चेतना के अलग-अलग शेड, अलग भाव लिए हुए हो सकते हैं। जरूरी नहीं कि चंद्रमा पर इंसान पहुंचा तो पृथ्वी का हर इंसान उसे अपनी उपलब्धि समझे। जाहिर है यमराज से सब डरते हैं, उनके प्रति व्यक्ति और सामूहिक भाव एक है जबकि आनंद-खुशी, संतोष, उपलब्धि व जन्म के मामले में सबके अलग-अलग देवता हैं। बुरे वक्त का, महामारी, प्रलय, आपदा, विपदा, पाप, मौत का एक देवता है यमराज (हर धर्म में कमोबेश एक जैसी व्याख्या, प्रतीक है) जबकि खुशी, जन्म, त्योहार, उत्सव, पुण्य, आशीर्वाद के अलग-अलग देवता और भगवान है! अच्छा वक्त बंटा, बिखरा और कई जन्मदाता लिए होता है। क्या नहीं?

हरिशंकर व्यास
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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