पार्टियों के चंदे में उछाल

0
213

राष्ट्रीय पार्टियां हर साल चुनाव आयोग को अपने चंदे से जुड़ी ऑडिट रिपोर्ट देती हैं। 2018-19 के लिए रिपोर्ट पेश करने की अंतिम तिथि 31 अटूबर 2019 थी। रिपोर्ट का लबोलुआब इतना है कि आम लोगों की जेब भले ही तंग हो आमदनी घट रही हो लेकिन पार्टियां मालामाल हो रही हैं। हालिया रिपोर्ट में राष्ट्रीय पार्टियों की कमाई का हिसाब देखें तो उनमें सें 65 फीसदी हिस्सा भाजपा का है, बाकी की कमाई का अंदाजा लगाया जा सकता है। 2017-18 की तुलना में इस बार भाजपा की कमाई ढाई गुना बढ़ी है यानि इस बार कुल कमाई 2410 करोड़ रुपये रही। इसके ठीक पीछे कांग्रेस है, जिसकी कमाई पांच गुना बढ़ गयी। यह बात और है कि वह भाजपा की कमाई के आधे से भी कम पर रही। तो मोटे तौर पर यह तस्वीर है। इलेटोरल बॉण्ड ने इसमें कमाई का रंग और चटख किया है। अन्य को अपनी कमाई का उल्लेख करते हुए स्रोत भी बताना पड़ता है। पर सियासी दलों ने अपने लिए इससे छूट ले रखी है। कई बार इसको लेकर सिविल सोसाइटी की तरफ से मांग उठी है। सूचना का अधिकार के दायरे में पार्टियों को भी लाने की जरूरत शिद्दत से महसूस की जाती रही है। लेकिन इसके लिए कोई भी दल अब तक तैयार नहीं है।

स्थिति यह है कि चुनाव लडऩे के तरीके दिनप्रतिदिन महंगे होते जा रहे हैं। प्रचार तंत्र की बढ़ती ताकत से असल मुद्दों पर गैरजरूरी मुद्दों को तरजीह मिल जाती है। ऐसे में जरूरी सवालों के साथ चुनाव मैदान में उतरने वाले दौड़ से ही बाहर हो जाते हैं। अवास्तविक मुद्दों को लुभावने तरीके से थोपने की कोशिश की जाती है। यही वजह है कि चुनावों में नीतियों व कार्यक्रमों का नहीं पैसों का जोर बढ़ता जा रहा है। इसीलिए जो पैसे से समर्थ हैं उन्हें उम्मीदवारों के चयन में प्राथमिकता दी जाती है। काडर आधारित राजनीति इसीलिए अब हाशिये पर है। धन बल की बढ़ती भूमिका का असर मौजूदा राजनीति में साफ-साफ दिखता है। संगठन के संचालन में जरूर चंदे की अहम भूमिका होती है लेकिन उसका स्रोत बताने की बाध्यता जुड़ जाए तो चुनावी राजनीति में गुणात्मक परिवर्तन की उम्मीद की जा सकती है। इसीलिए चुनावी चंदे को लेकर पारदर्शी व्यवस्था की मांग अर्से से होती रही है। जो राजनीति में होता है वो भी व्यवस्था का ही हिस्सा होता है, उसके लिए विशेष रियायत क्यों? विसंगति यह है कि इस संबंध में कानून बनाना माननीयों के जिम्मे होता है इसीलिए मांग ठंडे बस्ते में डाल दी जाती है। चुनाव आयोग ने कई बार इस बाबत ताकीद की है कि पार्टियों को इस दिशा में गंभीरता से सोचना चाहिए।

चुनाव को साफ -सुथरा बनाने के लिए चंदे को लेकर पारदर्शी व्यवस्था का होना पहली शर्त है। इससे पार्टियों की चाल-ढाल खुद ब खुद बदल जाएगी। अभी तक इस लोकतांत्रिक उत्सव में सीधी भागीदारी के लिए ललक जगेगी। पर स्थिति यह है कि लोगों की मांग कुछ होती है और हमारी सियासत इलेटॉरल बॉण्ड की नई व्यवस्था पर एकमत से साथ दिखे। वरना अन्य मुद्दों पर कई तरह के मतभेद उभर कर सामने आते, शोर-शराबा होता दिखे इस मुद्दे पर सबकी मौन सहमति थी। अब ऐसी स्थिति में, वर्तमान चुनावी राजनीति से किसी पारदर्शी व्यवस्था की उम्मीद करना दिवास्वप्न जैसा होगा। इसलिए अब चुनाव आयोग को सालाना दी जाने वाली ऑडिट रिपोर्ट एक औपचारिकता भर है। इससे यह तो पता चलता है कि किस पार्टी की कमाई कितनी है, लेकिन यह विषय गौण हो जाता है कि उसे चंदा देने वाले लोग कौन हैं, इसलिए ऐसी रिपोर्ट से सिर्फ यही पता चलता है कि अमुक पार्टी सत्ता में है। भाजपा के चंदे का ग्राफ इसीलिए ऊपर है। हालांकि कमाई में पीछे रहने के बावजूद कांग्रेस को पांच गुना ज्यादा चंदा मिलने से इतना संकेत तो स्पष्ट है कि भारी-भरकम पैसे देने वालों का एक दिन धड़ा अब उसकी तरफ भी देख रहा है। जाहिर है कारपोरेट घरानों की बढ़ती रुचि काफी कुछ कहती है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here