देश में हिन्दी महारानी है या नौकरानी

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हिन्दी
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भारत में हिन्दी कहां खड़ी है? हम हिन्दी का जो रोना रोते हैं क्या वो जायज है? दौर कौन सा कहा जाए- हिन्दी के महारानी बनने का या नौकरानी बनने का? मैं तो समझता हूं कि आजादी के बाद हिन्दी की हाल नौकरानी से भी बदतर हो गई है। आप हिन्दी के सहारे सरकार में एक बाबू की नौकरी भी नहीं पा सकते और हिन्दी जाने बिना आप देश के राष्ट्रपति प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री भी बन सकते हैं। इस पर ही मैं पूछता हूं कि हिन्दी राजभाषा कैसे हो गई? आपका राज-काज किस भाषा में जलता है? अंग्रेजी में! तो इसका अर्थ क्या हुआ?

हमारी सरकारें हिन्दुस्तान की जनता के साथ धोखा कर रही हैं। उसकी आंख में धूल झोंक रही हैं। भारत का प्रामाणिक संविधान अंग्रेजी में है। भारत की सभी ऊंची अदालतों की भाषा अंग्रेजी है। सरकार की सारी नीतियां अंग्रेजी में बनाती है। उन्हें अफसर बनाते हैं और नेता मिट्टी के माधव की तरह उन पर अपने दस्तखत चिपका देते हैं। सारे सांसदों की संसद तक पहुंचने की सीढ़ियां उनकी भाषाएं होती हैं, लेकिन सारे कानून अंग्रजी में बनते हैं, जिन्हें वे खुद अच्छि तरह से नहीं समझ पाते। बेचारी जनता की परवाह किसको है? सरकार का सारा महत्वपूर्ण काम-काज अंग्रेजी में होता है। सरकारी नौकरियों की भर्ती में अंग्रेजी अनिवार्य है। उच्च सरकारी नौकरी पाने वालों में अंग्रेजी माध्यम वालों की भरमार है। उच्च शिक्षा का तो बेड़ा ही गर्क है।

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चिकित्सा, विज्ञान और गणित की बात जाने दीजिए, समाजशास्त्रीय विषयों में भी उच्च शिक्षा और शोध का माध्यम आज तक अेंग्रेजी ही है। आज से 53 साल पहले मैंने अपना अंतरराष्ट्रीय राजनीति का पीएच.डी का शोधग्रंथ हिन्दी में लिखने का आग्रह करके इस गुलामी की जंजीर को तोड़ दिया था, लेकिन देश के सारे विश्वविद्यालय अभी भी उस जंजीर में जकड़े हुए है। अंग्रेजी भाषा को नहीं उसके वर्चस्व को चुनौती देना आज देश का सबसे पहला काम होना चाहिए, लेकिन हिन्दी दिवस के नाम पर हमारी सरकारे महान राष्ट्रवादी प्रधानमंत्री को चार साल बाद फुर्सत मिली थी जब उन्होंने केन्द्रीय हिन्दी समिति की बैठक बुलाई। उसकी वेबसाइट अभी तक सिर्फ अंग्रेजी में ही है। यदि देश में कोई सच्चा नेता हो और उसकी सच्ची राष्ट्रवादी सरकार हो तो वह संविधान की धारा 343 को निकाल बाहर करे और हिन्दी को राष्ट्रभाषा और अन्य भारतीय भाषाओं को राज-काज भाषाएं बनाए। ऐसा किए बिना यह देश न तो संपन्न बन सकता है, न समतामूलक, न महाशक्ति।

लेखक
डॉ. वेदप्रकाश वैदिक
(देश के जाने-माने पत्रकार)

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