तो अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अफगानिस्तान के तालिबानियों से बातचीत को ‘मृत’ (dead) करार दिया। उनका यह ऐलान अमेरिकी विदेश मंत्री के उस बयान के बाद है, जिसमें उन्होंने कहा था कि बातचीत वापिस भी शुरू हो सकती है। विदेश मंत्री के कहे को राष्ट्रपति ने दो टूक अंदाज में खारिज किया तो इसका अर्थ है कि अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव याकि सन् 2020 तक अब अमेरिका-तालिबान में बात नहीं होगी। अफगानिस्तान में आने वाले दिनों में जो राष्ट्रपति चुनाव होने वाला है उसमें जीतने वाला राष्ट्रपति निश्चितता से काबुल की सत्ता में बैठेगा। उसे यह चिंता नहीं होगी कि अमेरिका और तालिबान में बात हुई व समझौता हुआ तो पद से हटना पड़ेगा। काबुल की सरकार अमेरिका और पश्चिमी देशों की सेनाओं के बल से चलती रहेगी।
कह सकते हैं कि अमेरिका और तालिबानियों की बातचीत का टूटना अफगानिस्तान में यथास्थिति की निरंतरता है। ऐसा होना भारत के हित में है। भारत के लिए जरूरी है कि अफगानिस्तान में अमेरिकी सेना, पश्चिमी देशों की चौकसी बनी रहे। वहां अमेरिकी सेना तैनात रहे। यदि अमेरिका और तालिबान में समझौता हो जाता और अमेरिकी सैनिकों का अफगानिस्तान से हटना शुरू होता तो वह भारत के लिए खतरे की घंटी थी। तब पूरे अफगानिस्तान पर तालिबानियों का कब्जा बनता और तालिबानी याकि इस्लामी कट्टरपंथी राज में अफगानिस्तान कैसे वापिस आंतक का वैश्विक निर्यातक देश बनता, इसे पिछले अनुभव के मद्देनजर समझना मुश्किल नहीं है।
उस नाते अमेरिका और तालिबान की बातचीत का ‘मृत’ होना न केवल भारत के लिए, बल्कि पूरी दुनिया के लिए हितदायी है। इसका अर्थ यह नहीं है कि अफगानिस्तान में तालिबानियों का राज नहीं बनेगा। वह तो बनेगा। पर अमेरिका और पश्चिमी देशों के बाहुबल से लड़ कर बनेगा। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के बातचीत खत्म करने के फैसले के बाद तालिबानी प्रवक्ता ने अमेरिका को परिणामों के लिए तैयार रहने को कहा है। हकीकत है कि 9/11 के बाद याकि बीस साल की सतत कोशिश के बावजूद अमेरिका और पश्चिमी देश अफगानिस्तान से कट्टर इस्लामी तालिबानियों को नहीं मिटा पाए है। उलटे वे स्थायी होते जा रहे हैं।
सोचें, आज 9/11 की वर्षगांठ है और मौजूदा हकीकत है कि तालिबानियों का अफगानिस्तान के दो-तिहाई से ज्यादा इलाके पर कब्जा है। काबुल से कुछ ही दूर तालिबानी लड़ाके डेरा डाले हुए हैं। दो सूबों में लड़ाई चल रही है। इस वर्ष अब तक तालिबानियों के आंतकी हमलों में कोई बारह सौ लोग मरे है और अमेरिका के 16 सैनिक मारे जा चुके हैं। तभी अमेरिका में लोग तंग आए हुए थे, धारणा बनाए हुए थे कि अफगानिस्तान से सेना हटाना समझदारी है।
इसी समझ में राष्ट्रपति ट्रंप ने पिछले चुनाव प्रचार में अमेरिकियों से वायदा किया था कि वे अफगानिस्तान से सेना हटवाएंगें। चुनाव जीतने के बाद उन्होंने इस मसले पर अपना वार्ताकार नियुक्त किया। उसे तालिबानियों को पटाने, बातचीत करने के काम में लगाया। पाकिस्तान पर भी दबाव बनाया। दोहा में कई राउंड बातचीत हुई। पिछले सप्ताह बातचीत पूरी होने, समझौते के कगार पर पहुंची हुई थी। राष्ट्रपति ट्रंप ने कैंप डेविड में तालिबानी नेताओं को बुलाया। सोचें, जिन तालिबानियों ने बिन लादेन की मदद कर अमेरिका के न्यूयार्क पर हमला होने दिया उन आंतकियों को ट्रंप द्वारा अपने कैंप डेविड में न्योतना कितना बड़ा फैसला था! इसका अर्थ तालिबानियों की ताकत को अमेरिकी राष्ट्रपति का सलाम था तो अमेरिका की मजबूरी बताने वाला था उसके लिए अफगानिस्तान का बोझ असहनीय हो गया है।
समझौते की सूरत में तालिबानी इतना भर कहने वाले थे कि वे बिन लादेन के हमले की भर्त्सना करते हैं और अफगानिस्तान में अमन चैन चाहते हैं। मतलब अल कायदा और बिन लादेन की भर्त्सना से तालिबानियों का पाप धुलने वाला था उनके सुपुर्द अफगानिस्तान होने वाला था। लेकिन तालिबानियों ने अपनी प्रकृति माफिक ऐन वक्त धमाका किया। कैंप डेविड की बैठक के ठीक पहले काबुल में आत्मघाती बम विस्फोट किया। इधर समझौते की कगार और उसी वक्त राजधानी काबुल के अभेदी सुरक्षा इलाके में वह धमाका, जिसमें एक अमेरिकी सैनिक की मौत हुई।
सोचें, समझौते की कगार पर, कैंप डेविड में अमेरिकी मेहमानवाजी के ठीक पहले तालिबानियों का एक अमेरिकी सैनिक को बम धमाके में उड़ाना! तभी धमाके ने डोनाल्ड ट्रंप को जमीन पर ला पटका। उन्हें तालिबानियों से नाता तोड़ने और वार्ता खत्म करने की घोषणा करनी पड़ी।
सो ढाक के फिर तीन पात और भारत के लिए चैन की बात। भारत के लिए जरूरी है कि तालिबानी साल-दो साल काबुल की सत्ता से दूर रहें। वे अफगानिस्तान में लड़ते रहें और पाकिस्तान के मिशन का हिस्सा नहीं बनें। सचमुच जम्मू-कश्मीर के हालातों में तालिबानियों का अफगानिस्तान में फंसा रहना भारत की प्राथमिकता होनी चाहिए। खुद अफगानिस्तान में वहां के राष्ट्रपति और काबुल का जनमत तालिबान से अमेरिका की बातचीत का विरोधी रहा है। तालिबानी कुल मिलाकर कट्टरपंथी इस्लामी झंडाबरदार हैं तो उसे सत्तावान बनाना किसी भी तरह सही नहीं था।
सो, संकट टला। बावजूद इसके पाकिस्तान तालिबानियों को कश्मीर के मामले में उलझाना चाहेगा। पाकिस्तान दुनिया भर में कश्मीर की स्थिति पर जो हल्ला बना रहा है उसमें कोर रणनीति यह प्रचार है कि कश्मीर में मुसलमानों के साथ ज्यादती है। मतलब इस्लामी उग्रवाद के तमाम संगठनों, नेताओं को भड़काने की कोशिश है। इसमें पाकिस्तान के साथ तालिबानियों का आगे साझा बन सकता है। दुनिया जानती है कि पाक-अफगान सीमा के दोनों तरफ आंतकियों में कैसे तार जुड़े हुए हैं। इसलिए पाकिस्तान यदि भारत से आर-पार की लड़ाई की बात कर रहा है और दुनिया में भारत के खिलाफ माहौल बनाने की कोशिश में है तो अफगानिस्तान के तालिबानी तत्व भी भारत के खिलाफ मोर्चे में जुड़ सकते हैं। पर सोचें यदि तालिबानियों का अमेरिका से समझौता हो जाता, तालिबान को अमेरिका सिर पर बैठा लेता और वे दो-चार महीने में काबुल की सत्ता में आ जाते तो पाकिस्तान उनका कैसा उपयोग कर सकता था? तभी अमेरिका-तालिबान की बात खत्म होना बहुत बड़ी विपदा का टलना है।
हरिशंकर व्यास
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं