आर्थिक स्वतंत्रता : भारत अब भी पीछे

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मैं 17 वर्ष का था। मुझे एक बिजनेस पेपर में लेख लिखने का मौका मिला था, जब मुझे लोकसभा की स्पीकर गैलरी का पास मिला था, जहां जुलाई 1991 में मैंने मनमोहन सिंह का पहला बजट भाषण सुना। राजीव गांधी की हत्या के बाद भारत मुश्किल दौर से गुजर रहा था, जबकि नई सरकार के पास समय कम था, जिसके पास विदेशी कर्ज चुकाने के लिए फंड खत्म होता जा रहा था। लेकिन बदलाव की हवा का रुख सिंह के पक्ष में था। सोवियत साम्यवाद हाल ही में फूटा था, पूंजीवाद बढ़ रहा था। भारत के लिए भी एक मुक्त बाजार सुधार पैकेज के मूल सिद्धांतों को लागू करने के लिए मुफीद समय था।

मुझे सिंह का रोमांचक भाषण याद है। उनके शब्दों में डर और सुधारों से होने वाली वास्तविक आर्थिक प्रगति की उम्मीद, दोनों थे। 31 पेज लंबे भाषण का ज्यादातर हिस्सा उस भाषा में था, जो अपने दौर के नए प्रबुद्ध स्वर को दर्शाता थी, ‘हमारी रणनीति के केंद्र में विश्वसनीय वित्तीय अनुकूलन और व्यापक आर्थिक स्थिरता होनी चाहिए।’

भारत में सुधार की गति कुछ समय ही रही। अर्थव्यवस्था के पटरी पर आने के बाद राजनीति फिर अर्थशास्त्र पर हावी हो गई। राज्यों में मिली हार के बाद कांग्रेस के सदस्य ही सुधार के मोल पर सवाल उठाने लगे। सिंह का भी उत्साह ठंडा पड़ गया और बाद में बतौर प्रधानमंत्री भी उन्होंने उदारीकरण से ज्यादा कल्याणवाद पर ध्यान दिया।

कई वर्ष बाद सिंह के एक सलाहकार ने मुझे बताया कि उन्होंने 1993 में सबसे बड़ी गलती यह की कि आईएमएफ से लिया गया लोन चुकाने की जल्दबाजी की। जब तक लोन बाकी रहता, सरकार कह सकती कि सुधार के लिए ऋणदाताओं का दबाव है। इस बहाने के बिना सख्त कदम उठाना मुश्किल था। ऐसा सिर्फ भारत के साथ नहीं हुआ। बहुत कम सरकारें बिना दबाव के बदलाव लागू कर पाई हैं। यह भारत के सुधार के विचित्र इतिहास में एक जरूरी और सबसे यादगार दौर था, लेकिन अनोखा नहीं। भारत ने संकट के बाद के सुधारों को पहले 80 के दशक की शुरुआत में उन्नत किया था, और 2000 के दशक की शुरुआत और 2010 की शुरुआत में फिर ऐसा किया।

पूरे समय में, भारत उन व्यापक सुधारों का प्रतिरोधी रहा, जिसने चीन सहित कई पूर्वी एशियाई देशों की अर्थव्यवस्थाओं को बढ़ावा दिया। अक्सर भारतीय राजनेताओं ने व्यक्तिगत बिजनेस या उद्योग की मदद के लिए तैयार उपायों को आर्थिक सुधार के रूप में पेश किया, जबकि वास्तव में ये उपाय प्रतिस्पर्धा और वृद्धि को घटाने वाले थे। बिजनेस समर्थक होना और पूंजीवाद समर्थक होना समान नहीं है। कांग्रेस के उत्तराधिकारी भी उन्हीं समाजवादी आदर्शों में डूबे हैं, जो राज्य के हस्तक्षेप का द्वार खोलते हैं। हर दशक में सुधारों का दौर आता है, फिर भी भारत आर्थिक स्वतंत्रता की हेरिटेज फाउंडेशन रैंकिंग में 178 देशों में सबसे निचले तीन देशों में है।

सिंह के भाषण के 30 वर्ष बाद हम फिर ‘दोराहे’ पर हैं। महामारी में भारत के पास उस स्तर पर प्रोत्साहन लागू करने के लिए फंड नहीं है, जैसा कई विकसित देश कर रहे हैं। इसलिए फिर सुधार का दबाव है। लेकिन समय बदल गया है। अब ‘आत्मनिर्भरता’ उन देशों में भी नया सिद्धांत है, जिन्हें वैश्वीकरण से बड़ा लाभ हुआ। राजकोषीय समेकन बाहर हुआ, हावी सरकार फिर चलन में है। ज्यादातर आधुनिक अर्थव्यवस्थाएं अब विकृत पूंजीवाद पर चल रही है, जिसमें लगातार प्रोत्साहन और राहत पैकेज दिए जाते हैं, जो कि अमीरों के लिए समाजवाद का स्वरूप है।

भारत के लिए मेरी उम्मीदें अब राजनीति से बाहर ही ज्यादा हैं। सबसे ऊपर डिजिटल क्रांति हैै। विडंबना यह है कि बड़ी टेक कंपनियां इतनी शक्तिशाली हो चुकी हैं कि नया आत्मविश्वासी राजनीतिक वर्ग उनपर नकेल कस रहा है। भारत में भी जोखिम यह है कि ज्यादा प्रतिरोधी नियामक माहौल, वैश्विक वृद्धि के सुनहरे मौके को गंवा न दे। भारत की अर्थव्यवस्था अभी उतनी मुक्त नहीं है, इसलिए उसे विनियमन और ज्यादा सख्त सरकार के चलन को कम करने की जरूरत है। जैसा कि सिंह ने 1991 के भाषण में कहा था, ‘कम सरकार यानी ज्यादा विकास।’ भले ही दुनिया अब मुक्त बाजार के उत्साहियों के अधीन नहीं है, लेकिन भारत के लिए उन शब्दों पर अमल समझदारी होगी।

रुचिर शर्मा
(लेखक अर्थ विशेषज्ञ हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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