अमेरिका के साथ चीन का मजाक

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जो भी कहता है कि चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग मजाक करना नहीं जानते, वह शायद पैसिफिक की खबरें नहीं देख रहा। चीन ने पिछले हफ्ते ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप (टीपीपी) की सदस्यता के लिए आवेदन दिया है। यह मजाक इसलिए है क्योंकि इस समझौते को पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने पैसिफिक में चीन की आर्थिक शक्ति को चुनौती देने के लिए तैयार किया था।

चीन का इसके लिए आवेदन करना वैसा ही है, जैसे मानो अमेरिका चीन की एशिया में निवेश की ‘बेल्ट एंड रोड’ पहल का सदस्य बनना चाहे। दूसरे शब्दों में यह एक शरारत भरी चाल है। लेकिन इस चाल से अमेरिका की विदेश नीति की कमजोरी दिखती है।

चीन का आवेदन तब आया है, जब ब्रिटेन, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया ने चीन का भूराजनैतिक प्रतिस्पर्धा में सामना करने के लिए समझौता किया और घोषणा की कि अमेरिका परमाणु पनडुब्बियां तैनात करने में ऑस्ट्रेलिया की मदद करेगा। पर इसमें वर्षों लगेंगे। अमेरिका को चीन के बदलते व्यवहार के लिए आज रणनीति बनाने की जरूरत है। टीपीपी दरअसल इसलिए ही बना था।

यूएस-यूके-ऑस्ट्रेलिया पनडुब्बी समझौते के बाद चीनियों ने खुद से कहा होगा, ‘चलो जरा मज़े लेते हैं। अमेरिकी इतने मूर्ख थे कि वे उसी समझौते से नहीं जुड़े, जो हमें बाहर रखने के लिए बना था, जबकि उसके बाकी 11 सहयोगी जुड़ गए। तो चलो अब अपनी ही शर्तों पर टीपीपी का इस्तेमाल करें।’ हालांकि चीन फिलहाल टीपीपी में शामिल नहीं हो पाएगा, लेकिन उसने आवेदन देकर अमेरिकी वापपंथियों और दक्षिणपंथियों की गंभीरता की पोल खोल दी है।

ग्रेटर चीन की कंसल्टेंसी एप्को वर्ल्डवाइड के चेयरमैन जेम्स मैकग्रेगर कहते हैं, ‘चीन घरेलू सुधार की उम्मीद में मूल टीपीपी समझौते पर नजर बनाए हुए था। पर अब वे दिए गए। अब शामिल होने के नए प्रयास में चीन अपने विशाल बाजार के लालच का उपयोग कर अन्य सदस्यों को चीन के साथ रहने के लिए लुभाने की कोशिश करेगा।’

ट्रम्प तो इस समझौते को लेकर इतने अज्ञानी थे कि उन्होंने एक सभा में कह दिया कि चीन शुरू से ही टीपीपी का हिस्सा था। जबकि मूल टीपीपी में ऑस्ट्रेलिया, ब्रूनेई, कनाडा, चिली, जापान, मलेशिया, मेक्सिको, न्यूजीलैंड, पेरू, सिंगापुर और वियतनाम थे। यह सबसे बड़ा बहुराष्ट्रीय व्यापार समझौता था।

इसमें ऐसी कई चीजों पर प्रतिबंध था, जो चीन में धड़ल्ले से होती हैं। जैसे सब्सिडाइज उत्पादों को बाहर के बाजार में खपाना, वन्यजीवों की तस्करी, बौद्धिक संपदा का उल्लंघन आदि। टीपीपी का उद्देश्य व्यापार में पारदर्शिता लाना और सभी को बराबर मौका देना था। टीपीपी सफल होता तो पैसिफिक में मानक तय करने वाला साबित होता। लेकिन अमेरिका इससे भागता ही रहा।

पीटरसन इंस्टीट्यूट फॉर इंटरनेशनल इकोनॉमिक्स का अनुमान है कि टीपीपी से अमेरिका की राष्ट्रीय आय 2030 तक लगभग 130 बिलियन डॉलर प्रति वर्ष हो जाती। यह सब एक ट्रेजडी-कॉमेडी है क्योंकि अमेरिका के पैसिफिक सहयोगियों ने उसे उनके लिए व्यापार समझौता बनाने की छूट दी, ताकि वे चीन के बढ़ते दबदबे का सामना करने के लिए अमेरिका को तैयार कर सकें। लेकिन अमेरिका इससे दूर हो गया और अब चीन अपनी शर्तों पर उसकी जगह लेना चाहता है।

अभी देर नहीं हुई। अमेरिका अब भी टीपीपी में लौट सकता है। यह आज जरूरी है क्योंकि जब तक पनडुब्बियां तैनात होंगी, तब तक टीपीपी, सीपीटीपीपी हो जाएगा यानी ‘चाइनीज पीपुल्स ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप’। यह भी मजेदार होगा.. है न!!

थॉमस एल.फीडमैन
(लेखक तीन बार पुलित्जऱ अवॉर्ड विजेता एवं ‘द न्यूयॉर्क टाइस’ में नियमित स्तंभकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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