अभी चुनाव का पहला दौर शुरु हुआ है। अभी कई दौर पूरे होने बाकी है। इस पहले मतदान में याने सिर मुंडाते ही ओले पड़ गए। चुनाव आयोग ने लगभग 25000 करोड़ रु. का माल जब्त किया है, जिसमें नकदी, शराब, नशीली दवाइयां, बर्तन-भांडे और ऐसी चीजें हैं, जो नेताओं ने वोटरों को बांटने के लिए जमा की हुई थीं। 25 हजार करोड़ रु. का माल तो वह है, जो पकड़ा गया है। जो नहीं पकड़ा जा सका, जरा उसकी कल्पना तो कीजिए। वह कम से कम एक लाख करोड़ रु. का भी हो सकता है और यह मतदान का पहला दौर है।
अगले डेढ़ माह में यह राशि कई लाख करोड़ तक पहुंच सकती है। दूसरे शब्दों में भारत सरकार जितना टैक्स पूरे साल भर में इकट्ठा करती है, उतना पैसा चुनाव के डेढ़-दो माह में हमारे राजनीतिक दल जनता को रिश्वत देने में खर्च कर देते हैं। चुनाव आयोग ने संसद के चुनाव में हर उम्मीदवार पर खर्च की सीमा 70 लाख रु. बांध रखी है। आजकल 70 लाख रु. तो नगर निगम का उम्मीदवार ही खुद पर खर्च कर देता है। मेरी राय में 70 लाख रु. भी बहुत ज्यादा हैं। किसी भी उम्मीदवार के लिए 70 लाख रु. भी ईमानदारी से जुटाना बहुत मुश्किल है।
मेरी राय में किसी भी चुनावी उम्मीदवार के लिए एक लाख रु. से ज्यादा के खर्च पर पाबंदी होनी चाहिए। स्थानीय निकायों के उम्मीदवारों के लिए यह राशि काफी कम रखी जा सकती है। यह कैसे हो सकता है ? क्या विधानसभा और संसद के उम्म्मीदवारों पर भी यह पाबंदी लागू होगी ? हां, जरुर ! इसके लिए यह किया जाए कि हर निर्वाचन-क्षेत्र सिर्फ 10-10 हजार मतदाताओं का बनाया जाए। यदि ऐसा करें तो भारत की संसद में 80 हजार या एक लाख सांसद रखने पड़ेंगे, जो कि व्यावहारिक नहीं है। इसी तरह हर विधानसभा में हजारों विधायक हो जाएंगे। तो क्या करें ? ऐसे में हम क्या यह नहीं कर सकते कि ढाई लाख पंचायतों और 3255 स्थानीय निकायों को यह अधिकार दे दें कि उनके सदस्य सांसदों को चुन कर भेजें ? यह उसी तरह से अप्रत्यक्ष चुनाव हो जाएगा, जैसे राज्यसभा या विधान परिषदों या राष्ट्रपति का होता है।
भ्रष्टाचार तो इस पद्धति में भी होगा लेकिन आटे में नमक के बराबर होगा। यदि यह मतदान गोपनीय न हो तो यह भ्रष्टाचार रहित भी हो सकता है। भारत-जैसे विशाल जनसंख्यावाले देश में चुनाव-पद्धति में मौलिक परिवर्तन किए बिना भ्रष्टाचार को खत्म करना असंभव है। भारत की चुनाव पद्धति ब्रिटेन और यूरोप के छोटे-छोटे राष्ट्रों की नकल पर बनाई गई थी। ये राष्ट्र भारत के कई प्रांतों से भी छोटे हैं। अब इस पर पुनर्विचार की जरुरत है।
यदि यही पद्धति चलती रही तो ईमानदार से ईमानदार प्रधानमंत्री को भी बोफोर्स, अगस्ता वेस्टलैंड हेलिकॉप्टर, जर्मन पनडुब्बी और रफाल सौदे में पैसे खाने पड़ेंगे। अगर प्रधानमंत्री लोग डाका डालेंगे तो उनके अधिकारी और चपरासी तक रिश्वत क्यों नहीं मांगेंगे ? गंगा की तरह भ्रष्टाचार का नाला भी ऊपर से नीचे की तरफ बहता है।
डॉ वेद प्रताप वैदिक
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार है