सियासी हिंसा के खतरे

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हिंसा के बलबूते सियासी डगर नापने की चाहत आगे चलकर कितनी खतरनाक हो जाती है, इसकी बानगी है पश्चिम बंगाल की घटनाएं। हर चरण में हिंसा की खबरें उस हिस्से से आती रहीं जिसे भारत के सन्दर्भ में पुनर्जागरण का संवाहक माना जाता रहा है। 19वीं सदी का पूर्वार्द्ध बंगाल के सामाजिक, राजनीतिक और आध्यात्मिक त्रयी का गवाह रहा है, जिसने देश के भीतर नवजागरण की अलख जगाई। राजाराम मोहन राय, अरविंदो घोष से लेकर स्वामी विवेकानन्द तक एक समृद्ध पीढ़ी रही, जिसने भारत की आभा बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ऐसे समृद्ध कालखंड का गवाह रहे पश्चिम बंगाल में लोक तंत्र के नाम पर हिंसा की खबरें कुछ मूलभूत सवाल खड़े करती हैं, यदि उन पर समय रहते ध्यान नहीं दिया गया तो सत्ता की भूख किसी भी हद को पार कर सकती है। राजनीति में एक, दूसरे को सुनने, समझने की सलाहियत का लगातार कम होते जाना इस दौर की सबसे बड़ी चुनौती है। इससे सभी दलों को मिल.जुल र लडऩा होगा।

नहीं तोए हिंसा को ऐसे ही बढ़ावा मिलता रहेगा जैसे मौजूदा वक्त में पश्चिम बंगाल में होता दिख रहा है। इस सवाल का जवाब भला कौन देगा कि चुनाव के दिनों में जनसभाएं, रैलियां और रोड शो करने का मतलब हिंसा को दावत देना है। यह सवाल भी अहम है कि सरकारी मशीनरी का विरोधियों को दबाने के लिए इस्तेमाल करने से क्या लोक तंत्र बचा रहेगा। केन्द्रीय बलों की मौजूदगी में भी यदि किसी राज्य में राजनीतिक आकाओं के शह पर हिंसा प्रायोजित होती है तो सामान्य दिनों के बारे में अंदाजा लागाया जा सकता है। जिस तरह भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के रोड शो में हिंसा हुई, उससे यह भरोसा नहीं जग पाता कि मौजूदा चुनाव से किसी तरह का बदलाव होगा। ऐसा इसलिए कि हिंसा कभी एक तरफा नहीं होती उसमें दूसरे पक्ष की भी भूमिका होती है। लिहाजा हिंसा के जरिए भले ही किसी के लिए सत्ता सुलभ हो जाए, लेकिन समाज के भीतर तो हिंसा का प्रभाव बना रहेगा।

जो कुछ दलीय प्रतिबद्धता के नाम पर होता दिखाई दे रहा है, यह उसी सियासी हिंसा का नतीजा है जिसे चुनाव में पांव जमाने के लिए जमीन देने में तनिक भी संकोच नहीं करते। यही वजह है कि वामपंथियों के कब्जे से मुक्त हुआ पश्चिम बंगाल उस हिंसा की राजनीतिक सोच से मुक्त नहीं हो पाया जिसकी दरकार थी। तृणमूल कांग्रेस के सत्ता में आने के बाद भी वही विरोधियों को हिंसा के बल पर दबाने की रिवायत बरकरार है। और जिस तरह इस आम चुनाव में भाजपा व टीएमसी कार्यकर्ताओं के बीच खून-खराबे की घटनाएं सुर्खिया बन रही हैं। वे निकट भविष्य में किसी बदलाव की उम्मीद नहीं जगाती हैं। पश्चिम बंगाल की सबसे बड़ी त्रासदी वो सियासी हिंसा है, जिसका चुनाव के दिनों में प्रभाव देखने को मिल रहा है। सात चरणों में इस राज्य की सीटों का चुनाव कराने की कवायद भी हिंसा के प्रभाव को कमतर नहीं कर पा रही है। लगता है, भाजपा भी उसी राह पर है।

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