बड़ा है बेरोजगारी का सवाल

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रेटिंग एजेंसी मूडीज ने भारत की निगेटिव रैकिंग की है। इसका आशय है कि देश की आर्थिक स्थिति संकटग्रस्त है और जीडीपी पांच के अंक से भी नीचे जाने की सम्भावना है। हालांकि मौजूदा आकलन में राहत भरी बात यह है कि केंद्र सरकार के प्रयासों की सराहना की गई है जिसमें अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए देश की वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण लगातार जुटी हुई हैं। वैसे अब तक जितने वैदेशिक मूल्यांकन देश की आर्थिक सेहत को लेकर हुए हैं वे कमोबेश एक ही तरफ इशारा करते हैं कि अभी कई तिमाही विकास के सारे इंडेक्स नीचे की तरफ रहने वाले हैं। बावजूद इसके मोदी सरकार को भरोसा है कि वो देश की इकनॉमी पांच ट्रिलियन कर पायेगी। इसके लिए निवेश की सीमा को बढ़ाने की कवायद हो चुकी है। यही नहीं मोदी -02 में भी पिछले कार्यकाल की तरह वैदेशिक यात्राओं में निवेश आकर्षित करने के भरपूर प्रयास हो रहे हैं। बीते महीनों में अमेरिका और बैंकाक की पीएम विजिट का उल्लेख किया जा सकता है। दरअसल दुनिया में आर्थिक मंदी है।

अमेरिका और चीन जैसे बड़े प्लेयर आपसी प्रतिद्वंदिता में उलझे हुए हैं। उनके बीच ट्रेड वार के चलते रही- सही कसर पूरी हो रही है। इसके अलावा अमेरिका की तरफ से ईरान पर आर्थिक प्रतिबन्ध के चलते खासतौर पर भारत के लिए चुनौतियां बढ़ी हैं। ईंधन की खरीदारी महंगी पड़ रही है। यह तो फिलहाल राहत की बात है कि कच्चे तेल के दाम काबू में हैं। परिदृश्य अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अनुकूल नहीं है और घरेलू स्तर पर बीते वर्षो में उठाये गए कुछ क्रांतिकारी कदमो से हालात पहले से ठीक नहींचल रहे हैं। 2016 में नोटबदी के फैसले ने चली आ रही व्यवस्था को हिला कर रख दिया जिसका असर बढ़ती बेरोजगारी के रूप में सामने है। मौजूदा वक्त में साढ़े आठ फीसदी बेरोजगारी दर के असर को समझा जा सकता है। इसका मतलब हुआ कि कामकाज के अवसर घट गए हैं। मतलब साफ है परम्परागत मुद्रा चलन का ढंग बदले जाने से तकरीबन 83 फीसदी असंगठित क्षेत्र सिकुड़ गया या फिर बंद गया। इसको समझने के लिए संगठित क्षेत्र की तरफ देखें तो तस्वीर का मतलब समझ में आने लगता है।

देश के कोर सेक्टर में पसरी उदासी त्योहारी सीजन में भी उबर नहीं पाई। ऑटो सेक्टर में दो पहिया वाहनों में जरूर थोड़ी तेजी देखी गयी लेकिन वो 10-15 फीसद तेजी टिकाऊ भी रह पाती है यह नहीं कहा जा सकता। मारुती उद्योग में भी मिडिल सेगमेंट के वाहनों की उत्साहवर्धक सूचनाएं मिली लेकिन टाटा जैसी कंपनी के लिए अबभी खुशगवार तस्वीर नहीं है। कई बार शटडाउन के हालात पैदा हुए हैं। इसलिए यह जरूरी है कि देश की जो सच्चाई है उससे निपटने के लिए जरूरत पड़े तो कोर्स करेक्शन में कोई हर्ज नहीं। यह इसलिए भी कि जिंदगी के लिए जैसे हवा -पानी अपरिहार्य है वैसे ही जीवन- यापन के लिए रोटी- रोजी और सिर पर छत जरूरी है। जाहिर है इसके लिए हर हाथ को काम चाहिए। भारत जैसे विशाल देश में इस लिहाज से शिक्षा और रोजगार के बीच तालमेल की जरूरत है। अन्यथा कारणों पर फोकस किये बिना सिर्फ फौरी उपायों से राहत भले मिले लेकिन एक लम्बे वक्त के लिए समाधान नहीं मिल सकता। शिक्षा और रोजगार -इन दोनों महत्वपूर्ण पक्षों पर योजनाबद्ध काम नहीं हुआ।

यदि ऐसा होता तो समस्याएं काबू में रहती। इसी आलोक में हाल- फिलहाल की स्थितियों पर गौर करें तो पाते हैं कि देश की सबसे बड़ी समस्या बेरोजगारी हो गयी है। सेंटर फार मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी की हालिया रिपोर्ट कहती है कि देश में बेरोजगारी दर साढ़े आठ फीसदी पर पहुंच गयी है। इसमें ग्रामीण बेरोजगारी 8 फीसद जबकि शहरी क्षेत्र में करीब 9 फीसद है। वैसे राज्यवार देखें तो हरियाणा की स्थिति अत्यंत निराशाजनक है। इसका साफ असर उस राज्य में देखा भी गया। जहां 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने क्लीन स्वीप किया उसे वहां गठबंधन कर सरकार बनानी पड़ी। बेरोजगारी के आगे सारे सवाल और उपलब्धियों की फेहरिस्त फीकी पड़ जाती है। यहां इसे उल्लेख करना जरूरी है कि कुछ महीनों पहले ही बीजेपी के खाते में अनुच्छेद 370 को हटाने का श्रेय गया था। फिर भी जीवन के मूलभूत सवालों ने ही अपना असर दिखाया। याद होगा आम चुनाव से पहले यह तथ्य सामने आ चुका था कि देश में बेरोजगारी की दर 6 फीसद से ज्यादा हो गयी है। अबतक की सर्वाधिक बेरोजगारी का आंकड़ा था जिससे देश रूबरू हुआ।

विरोधी चुनाव में मुद्दा बना रहे थे लेकिन उस तथ्य को कुछ वक्त के लिए ढांप दिया गया। यह बात और कि चुनाव बाद खुद सरकार ने माना कि आंकड़े सही हैं। अमेरिका और चीन में भी बेरोजगारी दर चार फीसद से ज्यादा नहीं है। भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले देश में इस वक्त दो तिहाई लोग 35 वर्ष से कम हैं। अंदाजा लगाया जा सकता है कि किस कदर लोगों को काम की जरूरत है। नौकरियों का विज्ञापन निकलने पर छोटी-छोटी पोस्ट के लिए उच्च शिक्षित युवा आवेदन करते हैं। तादाद लाखों में हो जाती है। अभी हाल में एक और रिपोर्ट थी कि आर्थिक मंदी के चलते दक्ष बच्चों को भी नौकरी नहीं मिल पा रही है। आईआईटी संस्थानों में कैम्पस सेलेक्शन की रफतार मंद पड़ी है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियां इस बार पहले जैसी रूचि नहीं दिखा रही हैं। इससे जाहिर है लाखों के पैकेज का सपना प्रभावित हुआ है। चौतरफा मंदी की आहट के बीच जरूरत है अपने परम्परागत रोजगार के मुहानों को नए सिरे से खोलने के लिए फौरी और दीर्घकालिक नीतियों को आकार दिया जाए। ग्राम आधारित उद्योगों से लेकर कारपोरेट तक संतुलित व्यवस्था का निर्माण हो।

ऐसा इसलिए कि सबकी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका है। किसी की अनदेखी असंतुलन पैदा कर सकती है। जो देश का आर्थिक परिदृश्य है उसमें पहली जरूरत लोगों की जेब का कुपोषण दूर करने की है ताकि बाजार में क्रय- विक्रय से जीवंतता पैदा हो सके। मौजूदा दिक्कत यही है सामान तो है लेकिन उसे खरीदने वाले कम हैं या फिर खरीद कम रहे हैं। सरकार भले ही नोटबंदी के असर को ना माने लेकिन उसका असर सारी आर्थिक गतिविधियों पर अबतक महसूस किया जा रहा है। वैसे भी इस क्रांतिकारी कदम का उल्लेखनीय असर के बारे मे हालिया रिपोर्ट कहती है कि नोटबंदी से पहले 15 फीसद लोगों के यहां कैश हुआ करता था पर अब यह आंकड़ा 28 फीसद हो गया है। हो सकता है इसका कारण बैंकिंग सेक्टर में आयेदिन घोटाले के खुलासों से डिगा भरोसा हो। बहरहाल 2016 में 8 नवम्बर को नोटबंदी की घोषणा के बाद से अबतक देश की आर्थिक गाडी पटरी पर नहीं आ पाई है जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण है तेजी से बढ़ता बेरोजगारी का ग्राफ।

प्रमोद कुमार सिंह
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उ नके निजी विचार हैं )

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