जसवंत सिंह: गरिमा, बुद्धि का प्रखर व्यतित्व

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जसवंत सिंह पचंतत्व में विलीन हुए। जोधपुर में घर-फार्म हाउस में उनके बेटे मानवेंद्र सिंह ने जब उनको मुखाग्नि दी तो मैं मौजूद नहीं था लेकिन मैं कोरोना काल के इस वक्त में मन से उस क्षण का साक्षी हुआ पड़ा था जब हंस के उड़ चलने की खबर सुनी थी। मालूम हुआ कि जोधपुर में अंतिम संस्कार होगा तो मुझे परिवार का निर्णय उचित लगा। इसलिए कि मैं मानता हूं कि दिल्ली न जन्म संस्कार लायक है और न मृत्यु संस्कार लायक। फिर जसवंत सिंहजी अपनी माटी से सचमुच ऐसे रचे-बने-गुंथे थे और उस माटी में उनका गरिमामय व्यक्तित्व, व्यवहार ऐसा ढला हुआ था कि मैं खुद इससे 1985-86 से लगातार सोचता रहा हूं कि अपने राजस्थान में मारवाड़ का बहुत गहरा व खास अर्थ है।

जसवंत सिंह तहजीब, व्यवहार, विचार की गजब भव्यता लिए हुए थे। वे सनातनी और आधुनिक हिंदू का पर्याय व्यक्तित्व थे। मेरा उनसे पुराना परिचय था। तब का जब 1985-86 में मैं दिल्ली के सुंदरनगर में उनके ऑफिस जाते-आते उनसे गपशप करता था। बतौर एक नौजवान कलमघसीट मैं उनसे जानता-समझता था दिल्ली के सत्ता गलियारों, राजनीति के अंदरखाने की बातें। मतलब उनके सत्तावान बनने से पहले से मेरा मिलना-जुलना था। उनके पढ़ने की किताबों, उनकी कला-संगीत-शास्त्रीयता की अभिरूचि में इतना गदगद होता था कि कई दफा सोचा भैरो सिंहजी इन्हें कैसे राजनीति में ले आए हैं। उन्हीं के दफ्तर के छोटे से टेप रिकार्डर पर कनकना बनर्जी को मैंने पहली बार सुना। जसवंतजी पर सोचते हुए विचार करता था कि भाजपा में, संघ के लोगों में इनका क्या मतलब है! और भैरौ सिंहजी व वाजपेयीजी ऐसे व्यक्तित्व को भाजपा में कैसे स्थापित कर दे रहे हैं! अपना मानना था कि वे भाजपा में, दिल्ली में कितने ही रहे हों लेकिन उन्होंने जीवन उसी अंदाज में जीया, जिसे जीते हुए वे दिल्ली आए थे।

तभी जोधपुर में उनके अंतिम संस्कार में भाजपा, संघ और दिल्ली की सत्ता के मौजूदा सत्तावानों में एक भी नुमाईंदे का न होना खटका नहीं। वह तो होना ही था। आज जो चेहरे दिल्ली में हैं वे भैरोसिंह शेखावत, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी के उत्तराधिकारी नहीं हैं। जो हैं वह इन दिनों मेरे लिखने, याकि अपनी थीसिस की पुष्टि है कि 15 अगस्त 1947 के बाद आजाद भारत में उतरोत्तर कैसे हंस विलुप्त होने की ओर हैं और क्रमशः कौवों-लंगूरों की कांव-कांव, चिल्लपों में जीना देश नियति है।

बहरहाल, मैंने जसवंतजी को दूर से ज्यादा समझा। उनके सत्ता का हिस्सा बनने के बाद मेरा संपर्क लगभग टूट गया। 1996 के बाद मैं उन्हें दूर से ही जानता-बूझता-समझता रहा। कभी-कभार जरूर संसद भवन, सेंट्रल हॉल में आमना-सामना होने पर मुलाकात, बात हो जाया करती थी। आप कैसे हैं, जैसा हरि चाह रहे हैं या फलां गड़बड़ है तो जैसी हरि इच्छा के प्रत्युत्तर में जसवंतजी हमेशा ऐसे मान में मुझे कुछ संबोधन करते, कहते कि मैं सोचता रहता कि पहले जैसी गपशप अब कैसे संभव है। हां, वे मेरे गपशप कॉलम और मेरे लिखे के शुरुआती पाठक थे और मुझे व जनसत्ता को संभवतया बहुत पढ़ा होगा। उनसे लंबी राजनीतिक बात तब हुई थी जब उन्होंने मारवाड़ को छोड़ मेवाड़ के चित्तौड़गढ़ से लोकसभा चुनाव लड़ने का फैसला किया और मैं वहां के सर्किट हाउस में पहुंचा तो उन्होंने मेरी गपशप के हवाले मेरी इस धारणा की पुष्टि की कि राजनीति करवट लेने वाली है।

दिल्ली में भाजपा की सरकार बनी, अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री तो जसवंतजी उस सरकार के हनुमान थे, चाणक्य थे और नंबर एक कूटनीतिज्ञ व सलाहकार। बतौर रक्षा मंत्री, विदेश मंत्री, वित्त मंत्री बनने का उनका योग यह बतलाने वाला था कि वाजपेयी उन्हे कितना मानते है। बावजूद इसके उन्होने सहजता नहीं छोड़ी। अपनी गरिमा को छिछला नहीं होने दिया। तब विमान अपहरण, कांधार प्रकरण और लाहौर बस यात्रा, आगरा शिखर वार्ता जैसे मामलों से मेरे लिखे में निराशा हुआ करती थी कि यह सब क्या है! पर वह सब प्रधानमंत्री वाजपेयी की तासीर में था। वाजपेयी के मन को जान उन्होंने ऐतिहासिकता बनाने में जो संभव था वह किया। उन्होंने कई बिंदुओं पर अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के मतभेद मिटाएं। दिल्ली दरबार के टुच्चेपन याकि ईर्ष्या, एक-दूसरे को काटने जैसी तमाम बातों से वाजपेयी सरकार का हाईकमान स्वस्थ व समझदार था। अन्य शब्दों में वाजपेयी-आडवाणी-जसवंत सिंह, बृजेश मिश्रा, डॉ. मुरली मनोहर जोशी, जार्ज फर्नांडीज परस्पर संबंधों-व्यवहार में वह विश्वास, सहजपना लिए हुए थे, जिसे यदि आज के परिप्रेक्ष्य में याद करें तो सोचना होगा कि दस-बीस सालों में ही हिंदू राजनीति और उसके चेहरे कितने छोटे-बौने-छिछले हुए है। उफ! इतने कम कम समय में इतनी अधिक गिरावट!

जसवंत सिंह को संघ याकि आरएसएस ने कभी अपना नहीं माना और न ही जसवंत सिंह ने अपने व्यक्तित्व की गरिमा, अपनी बौद्धिकता में कभी संघनिष्ठ दिखलाने की भोंडी कोशिश की। बावजूद इसके वाजपेयी और आडवाणी व सरकार के एजेंडे में वे संघ के कहे का मन से सम्मान करते थे। उसकी पालना में रहे। बतौर सनातनी हिंदू उनका व्यवहार असलियत में ज्यादा आस्थावान-प्रामाणिक था। हिंदू होने की सनातनी समझ में वे विचारमना थे, सनातनी व्यवहार में ढले हुए थे। उनके मंत्री होने के बाद मैंने किसी से नहीं सुना कि उनका व्यवहार बदल गया है या सत्ता के ठाठ-बाट आ गए हैं। उन्हें बतौर सांसद 15, तीन मूर्ति लेन की जो कोठी आवंटित थी उसी में वे उम्रपर्यंत रहे। उनके बगल की 13, तीनमूर्ति लेन में कमल मुरारका रहते थे। उनके यहां कभी भी कोई प्रोग्राम, दावत होती थी तो जसवंतजी पैदल ही पहुंच जाते थे। एक भाजपा-संघ सरकार का विचारक और दूसरा चंद्रशेखर व समाजवादी विचारों में ढला हुआ मगर दोनों में जब व्यवहार बना तो ऐसा बना कि वह अपने आपमें मिसाल है कि सनातनी हिंदू यदि कोई सच्चा है तो विचार भिन्नता भी मित्रता, शास्त्रार्थ का चुंबक लिए हुए होती है।

पढ़ना-लिखना-विचारना और दुनिया की समझ ने बतौर विदेश मंत्री जसवंत सिंह की वैश्विक राजधानियों में प्रतिष्ठा बनवाई। उनके गरिमापूर्ण-आदमकद व्यक्तित्व के मुरीद वाशिंगटन के विदेश मंत्रालय के आला कूटनीतिज्ञ थे तो पड़ोसी देशों के नेता भी थे। उनकी शख्सियत से वाजपेयी सरकार की जो इमेज बनी उस पर अधिक नहीं लिखा गया है और मैंने भी नहीं लिखा है लेकिन दुनिया के विदेश मंत्रालयों में भारत के कूटनीतिक कौशल में जसवंत सिंह का जो मान हुआ वह अनहोना थी। उन्होंने सनातनी हिंदू तासीर में परंपरागत ढर्रे में जो भी अच्छा संभव था वह किया। रक्षा मंत्रालय में अरूण सिंह कमेटी की सिफारिश अनुसार सुधार किए। सभी सेनाओं के प्रमुख याकि सीडीसी का प्रस्ताव उनके वक्त भी था लेकिन उन्होंने चली आ रही व्यवस्था को सही माना। नुस्ली वाडिया से याराना के बावजूद वे वित्त मंत्रालय में पक्षपातरहित रहे। कोई क्रोनीवाद नहीं दिखलाया।

सही है कि जसवंत सिंह अंततः उस शाईनिंग इंडिया टीम की हवा में बहते हुए थे कि हमने इतना कुछ कर दिया है तो जनता हमें फिर चुनेगी। उनके लिए भी सदमे वाली बात थी जो वाजपेयी-आडवाणी-जॉर्ज जैसे धुरंधरों की सत्ता सोनिया गांधी की हवा में तिनके की तरह उड गई। मैं वाजपेयी की सरकार को युवा महत्वाकांक्षी प्रमोद महाजन, जेटली, वेकेंया, सुषमा, अनंत कुमार की अहंकारी चिंगारियों और आडवाणी-संघ-दत्तोपंत ठेंगड़ी के किंतु-परंतु में नौ दिन चले अढ़ाई कोस की सद्गति वाला मानता हूं। बावजूद इसके वह भले लोगों की भली सरकार थी। इसलिए सत्ता से बाहर होने के बाद अटल बिहारी वाजपेयी टूटे तो जसवंत सिंह अपने मूल में लौट आए। पढ़ने-लिखने में फिर खो गए और अपने जाने सत्य के अनुसार किताबें लिखीं जो झूठे लोगों के लिए बहाना बनीं। यह अनुभव त्रासद है कि वाजपेयी, जसवंत सिंह, जॉर्ज फर्नांडीज और लालकृष्ण आडवाणी ने फिर राजनीतिक संन्यास,जीवन कैसा जीया। इस गुत्थी में समझ नहीं आता है कि क्या तो ईश्वर का न्याय और क्या हिंदू की सामाजिकता, संघ का भाईचारा जो जिन लोगों ने पार्टी-सरकार का पहला अनुभव कराया उन सबको अकेलेपन का, निर्वासन वाला उत्तरार्ध भोगना पड़ा।

जसवंत सिंह को अगस्त 2014 में गिरने से चोट लगी और वे सालों कोमा में रहे। इस जून में उन्हें फिर अस्पताल में भर्ती करवाया गया था। जहां तक मेरी जानकारी है उन्हें देखने दो-तीन महीनों में लालकृष्ण आडवाणी जाया करते थे। कमल मुरारका भी कोरोना काल से पहले तक उन्हें देखने जाते रहे। अपनी अचेतन अवस्था में उन्हें सर्वाधिक सुकून पत्नी, बेटे मानवेंद्र और परिवारजनों की एकाग्रता से सेवा-सुषमा से निश्चित ही मिला होगा। मैं सोच नहीं पाता कि जीवन के आखिर में वाजपेयी, जॉर्ज, जसवंतजी ने अचैतन्यता-चैतन्यता में कैसे तो चेहरों को बूझा हो और जीये जीवन पर कैसे सोचा होगा। जीवन के रस-रंग की यादों में तंत्रिकाएं कैसे झंकृत रही होंगी। इतना ही कह सकता हूं कि हंस किसी भी अवस्था में हो वह जब उड़ चल देता है तो जग दर्शन के परम संतोष बाद ही होता होगा।

हरिशंकर व्यास
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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