कांग्रेस की दुविधा

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भाजपा से एख बार फिर परास्त हुई कांग्रेस का अगला कदम क्या हो, यह तय कर पाने में पसीने छूट रहे हैं। हालांकि चुनाव में करारी हार की जिम्मेदारी लेते हुए कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने शनिवार को पार्टी की कार्यसमिति की बैठक में इस्तीफे की पेशकश की पर उसे मंजूरी नहीं मिली। कहा गया कि विपरीत परिस्थितियों में पार्टी को राहुल गांधी के नेतृत्व की बड़ी जरूरत है। इस तरह बात पेशकश तक ही सिमट कर रह गई। ठीक इसी तरह 2014 में लोक सभा चुनाव में मिली करारी हार के बाद तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भी इस्तीफे की पेशकश की थी। कार्यसमिति के सदस्यों ने प्रस्ताव को नामंजूर कर दिया था। वैसी ही परिस्थिति इस बार भी सामने है पर राहुल गांधी से ही पार्टी के पुनरुद्धार की उम्मीद लगाई जा रही है।

जिस तरह देश के 17 राज्यों से कांग्रेस साफ हुई है और यूपी में अध्यक्ष की परम्परागत सीट अमेठी भी भाजपा की झोली में चली गई, उससे स्पष्ट है कि राहुल के नेतृत्व में पार्टी को दमदार बना पाना आसान नहीं है। ऐसा नहीं है कि अध्यक्ष ने मेहनत नहीं की। आक्रामक ढंग से प्रचार किया गया। साथ में प्रियंका गांधी वाड्रा ने भी पूरा जोर लगाया। लेकिन जनता से तो जुड़ाव नहीं हो पाया जो नरेन्द्र मोदी कर पाने में कामयाब रहे। इस दृष्टि से कांग्रेस को अपनी रणनीति पर पुनर्विचार की जरूरत है। आक्रामक अभियान व्यक्ति केन्द्रित हो गया जिसका कांग्रेस को इस चुनाव में बड़ा मोल चुकाना पड़ा है। अब तो कांग्रेस के भीतर भी लोग समझने लगे हैं कि पीएम की निजता पर निशाना साधना देश की जनता को नागवार गुजरा, इसीलिए पार्टी की बड़ी दुर्गति हुई।

ऐसा दूसरी बार है कि कांग्रेस को लोक सभा में विपक्ष का नेता पद लायक जीत हासिल नहीं हुई है। पार्टी को नए सिरे से खड़ा करने के लिए जमीनी स्तर पर नए चेहरों के साथ संगठन में जान फूंक नी होगी। खासकर यूपी और बिहार लंबे समय से जमीनी कार्यकर्ताओं की कमी महसूस कर रहा है पर इस दिशा में अब तक कोई गंभीर प्रयास नहीं हुआ। सांगठनिक ढांचा जब जेबी बन जाए तो दुर्गति कि तनी मारक हो सकती है, उसकी बानगी है इस चुनाव का परिणाम। वैसे तो अच्छा होता पार्टी की कमान गांधी परिवार से बाहर किसी शगस को दी जाती। अच्छा होता ये इस्तीफे की पेशकश का मसला किसी नए को मौका देने की वजह बनता। अच्छा होता कांग्रेस अपनी मध्यमार्गी विचारधारा के साथ खड़ी दिखाई देती।

दरअसल भाजपा बनने के चक्कर में कांग्रेस का बड़ा नुकसान हुआ है। पार्टी के सामने मोदी-शाह की भाजपा है। जहां चौबीसो घंटे संगठन को लेकर एक फिक्र दिखाई देती है। जीत के बाद भी तैयारी चलती रहती है। पर कांग्रेस अब भी पुराने ढर्रे पर है। यही वजह है कि हाल के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को मिली जीत लोक सभा चुनाव तक कायम नहीं रह पायी। पार्टी के भीतर की गुटबाजी पर राहुल गांधी का नियंत्रण ना होने से भी कांग्रेस के हिस्से नाकामी आयी है। 2019 की भाजपा दक्षिण के राज्यों में अपने पांव पसारने को बेताब है। ऐसी स्थिति में सबसे पहले कांग्रेस को हिन्दी पट्टी में अपनी जड़ों को और मजबूत करना होगा ताकि चुनौती देने लायक बन सके ।

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