जब कोरोना महाकाल में पूरी दुनिया त्राहिमाम हो उठी हो, प्रभावित देशों की अर्थ व्यवस्था बेहद प्रभावित होकर धड़ाम से जमीन पर आ गिरी हो। इस विषाद परिस्थिति में सभी देश इससे निजात पाने को बेचैन हों, ऐसा लग रहा है वैसीन आने तक स्थिति भयावाह हो सकती है। भारत में भी अर्थ व्यवस्था तीव्रता से नीचे आ रही है। लगभग दो करोड़ लोगों की नौकरी जा चुकी है। दस करोड़ लोग बेरोजगार होकर अपने घरों में छिपे बैठे हैं। छोटे-मोटे कारखाने बंद हो गए और जो चल भी रहे हैं उनमें भी उत्पाद के बिकने में संशय पैदा हो रहा है।
ऐसे में सुखद स्थिति हमें अपने आधारभूत धंधे कृषि में एक उम्मीद की किरण दिखाई दे रही है। इसी कृषि की बदौलत बाहर से आए प्रवासी मजदूरों ने मेहनत करके अपने परिवारों को भूखा मरने से बचाया। इसी कृषि ने उन्हें आश्रय दिया, प्रवासी मजदूरों को डिप्रेशन में जाने से बचाया। अब गिरती अर्थ व्यवस्था में एक उम्मीद किरण इस कृषि से फूटती दिखाई दे रही है। आरबीआई की इस तिमाही में देखने को मिला किखेती में कोरोना अवधि में 3.4 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। फूटती उम्मीद की किरण ऐसा महसूस होने लगा कि देश के 138 करोड़ लोगों भूखे तो नहीं मरना पड़ेगा। अधिक न सही कम ही सही लेकिन लोगों को इस कृषि की बदौलत रोजगार का कुछ अंश तो मिल रहा है।
उम्मीद की जा रही है कि आने वाले वत में कृषि व उससे उत्पादित फसलें ही लोगों को नई राह दिखाएगी। साथ ही देश की अर्थ व्यवस्था को उभारने में मदद भी की करेगी। जिस तरह किसान मेहनत हौंसला पैदा करके फसलें उत्पादित कर रहा है उसी तरह अन्य कारोबार में भी सभी एकसाथ पसीना बहाकर मेहनत करें तो देश की अर्थ व्यवस्था उभारने में अधिक समय नहीं लगेगा। जरूरत सिर्फ हौसला पैदा करने की है। गीता में भी उपेदश है कि फल की चिंता किए बिना कर्म में लीन हो जाओ तो सफलता निश्चित रूप से मिलेगी।
-एम. रिजवी मैराज