हे राम! इन्हें तो सहानुभूति भी नहीं!

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भारत के हम लोग क्या हैं, यदि इसे समझना हो तो ईश्वर के लिए उन मां-बापों से मिलें, जो वायरस के बहाने लूटरों के आगे बेबस हैं। जब नादिरशाह ने दिल्ली में तलवार से असंख्य लोगों को मारा, उन्हें लूटा तो हिंदुओं ने यह सोचते हुए खून के आंसू पीये, ताउम्र रोते रहे कि वह विदेशी लुटेरा, आतातायी था। पर आज का भारत? 21वीं सदी के सन् 2020 में भारत में लोग कैसे रोते हुए लूटे जा रहे हैं, क्या इसकी आपको खबर है? नहीं होगी। इसलिए कि खबर लेने और देने वाला कहां कोई है? खबर तब हो सकती है जब पूछने वाला, पड़ताल करने वाले, निर्भीक लोग-जननेता व मीडिया हो। जब आंख, कान, नाक, दिमाग खुले हुए हों!

जब हम उजाले में जी रहे हों। जबकि भारत आज उस दशा में है, जहां नागरिक अस्पताल में लावारिस मरें, इलाज के नाम पर मरीज के घरवालों पर अस्पताल डाका डालें, तालाबंद हुए स्कूल बच्चों की फीस पूरी की पूरी वसूलते रहें, दवा कंपनियां वायरस की कथित दवाओं के दस गुना अधिक दाम वसूलें, कैशलेस मेडिकल बीमा होने के बावजूद अस्पताल नकदी पैसा देने पर ही मरीज को लेने को तैयार हों, हवाई-रेल-बस यात्रा वाले मनमाना किराया वसूलें, बिजली कंपनियां मनमाने बिल भेजें और मुनाफे वाली कंपनियां भी लोगों को रोजगार से निकालें या उन्हें एक-चौथाई सैलेरी से बंधुआ बनाएं तो यह सब पड़ताल, सवाल, बहस और विचार के मुद्दे नहीं होने है और न होंगे! न कही सुनवाई है, न सवाल है, न जांच है, न पड़ताल है, न खबर है। तभी भारत का इंसान फिलहाल बेसिक इंसानी दया भी लिए हुए नहीं है।

भारत के नागरिक फिलहाल बिना सहानुभूति, बिना दया, बिना संवेदना और बिना व्यवस्था के है। यदि व्यवस्था होती तो क्या भारत की संसद, भारत की सरकार, भारत का प्रधानमंत्री यह फैसला करता कि महामारी के विकट काल में भी जनप्रतिनिधि बिना सवाल पूछने के अधिकार के हों? यदि व्यवस्था होती तो सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट अपने आप वायरस मरीजों से अस्पतालों की लूट का संज्ञान नहीं लेते? कैसे पुलिस और प्रशासन का यह डंडा नहीं चलता कि स्कूल बंद हैं तब दिन की बोर्डिंग, खाने, खेलकूद की महीने की कहीं यदि 80 हजार रुपए की फीस थी तो वह जस की तस, या बीस प्रतिशत कटौती से प्रति माह अभिभावकों से कोरोना काल में भी लगातार वसूली जाती रहती? या छह हजार रुपए की रेमेडिसीविर दवा पचास से अस्सी हजार रुपए की रेट पर बिक रही होती? और प्राइवेट अस्पताल वायरस इलाज के बिल लाखों में वसूल रहे होते!

मैं सवेरे यह जानकर बहुत भन्नाया कि प्राइवेट अस्पताल वायरस के मरीजों को कैशलेस मेडिकल बीमा होने पर उन्हें जगह नहीं होने के हवाले टरका देते हैं। इसलिए कि वे इलाज की मनमानी कमाई कर रहे हैं और यह काम नकद पैसे से आसान व सुरक्षित है। मरीज पांच लाख रुपए नकद जमा कराए तो अस्पताल में बिस्तर मिलेगा नहीं तो भटकते रहो। कैशलेस बीमा है और उसके हवाले मरीज या घरवाले कितना ही गिड़गिड़ाएं डॉक्टर और अस्पताल दया तो दूर सहानुभूति भी नहीं दिखाएंगें। बिस्तर, जगह नहीं होने के बहाने मरीज को दर-दर भटकने के लिए छोड़ देंगे।

क्यों अस्पताल ऐसा कर रहे हैं? इसलिए क्योंकि इनके लिए वायरस अवसर है। कोविड-19 भारत के प्राइवेट मेडिकल क्षेत्र के लिए, भारत के उद्यमी डॉक्टरों के लिए, भारत के डॉक्टरों के लिए वह अवसर है, जिससे साल भर में उनका पूरा इनवेस्टमेंट निकल आएगा। यदि कोई डॉक्टर बनने के लिए करोड़ से पांच करोड़ रुपए खर्च करता है और अस्पताल बनाने में पांच, दस, पचास, पांच सौ करोड़ रुपए का निवेश करता है तो अलीगढ़, दरभंगा, नोएड़ा, दिल्ली, गुरूग्राम, जयपुर याकि जिले से ले कर राजधानी नगर के छोटे-बड़े तमाम अस्पतालों के लिए अपना निवेश वसूलने, कमाई, लूट का यह वक्त स्वर्णकाल है। अगले दो साल में भारत में जितने करोड़ वायरस मरीज होंगे उसी अनुपात में प्राइवेट अस्पतालों, प्राइवेट मेडिकल क्षेत्र की कमाई, वसूली, लूटने का धंधा होगा। सोचें, वायरस से क्या गजब कमाई का अवसर बना है। वायरस की अधिकृत दवा और इलाज नहीं है। मोटे तौर पर मरीज की केयर, देखभाल और शरीर की दशा-दिशा में देखभाल के वक्त रिस्पांस का मामला है। सरकारी अस्पताल में गरीब मरीज और प्राइवेट अस्पताल में अमीर मरीज सब का इलाज कुल मिला कर भगवान भरोसे है। पर मानवीय त्रासदी, यंत्रणा की बेबसी और लूट के कई रूप बन गए हैं और सबकी कॉमन बात पैसे में अपने आपको लुटाने में आपका सामर्थ्य है।

क्या 41 लाख लोगों को संक्रमण व 71 हजार मौतों के बाद भी भारत सरकार, प्रधानमंत्री, स्वास्थ्य मंत्री, मुख्यमंत्रियों, जनप्रतिनिधियों, सुप्रीम कोर्ट-हाई कोर्ट को भान नहीं होना चाहिए कि कैसे इलाज के नाम पर लूटा जा रहा है? क्या इस पर संसद में सवाल और बहस नहीं होनी चाहिए? सवाल नहीं पूछे जाने चाहिए? मीडिया से पड़ताल नहीं करवानी चाहिए? एक जानकार ने मुझे हिसाब बताया कि सरकारी कायदे से ही अस्पताल के मजे हैं। जैसे यह कायदा है कि जो भी टेस्ट करवाना चाहता है उसे टेस्ट कराने के साथ अस्पताल में भर्ती होना होगा। एक दिन या दो दिन बाद रिजल्ट आया और निगेटिव हुआ तो उसकी छुट्टी होगी मगर तब तक दो दिन अस्पताल के खुले खाट पर भर्ती रहने का बिल तो बन गया। फिर भले वह अस्पताल की दुकान के लेवल में तीस हजार का बिल हो या पचास हजार का। छोटी जगह टेस्ट एंटीजन के हैं तो टेस्ट में गड़बड़झाले और फिर बार-बार टेस्ट, आखिर में आरटी-पीसीआर के टेस्ट के बहाने तीन -चार दिन मजे से मरीज को बिल फाड़ थमा दिया जाता है। दूर-छोटी जगह में लूट का भदेस तरीका है तो बड़े-नामी अस्पतालों में अलग तरह का। पर उल्लू बनाना, लूटने का संस्कार सर्वत्र एक सा।

वैश्विक टीवी चैनलों याकि बीबीसी, सीएनएन, फ्रांस, जर्मनी, आस्ट्रेलिया, सिंगापुर आदि के चैनल पर आपको कोविड-19 वायरस के इलाज, रिपोर्टिंग में लगातार, हर दिन सुर्खियां मिलेंगी। उस सबमें उन समाज में महामारी के वक्त सहानुभूति, दया, संवेदना से व्यवस्था-प्रशासन- संसद काम करते हुए मिलेंगा। संसद में विपक्ष जवाबतलब करता मिलेगा। लेकिन भारत वह देश है, जहां पूरा मीडिया वायरस, उसके इलाज के प्रति निरपेक्षता रखे है। मेरी अस्पतालों में ऑक्सीजन सप्लाई करने वाले एक उद्यमी से बात हुई। उसका कहना था कि उत्तर भारत के राज्यों में जिला स्तर पर सप्लाई की बुरी दशा है। इस महीने के आखिर में यूपी में जरूर मेरठ के पास एक प्लांट ऑपरेशनल हो सकता है तब भले रॉ मैटेरियल शायद सस्ता हो और सप्लाई पर्याप्त होने लगे। अन्यथा मारामारी रहेगी।

कोई माने या न माने, लेकिन आने वाले वक्त में मेरी यह बात सही साबित होगी कि कोरोना वायरस कुल मिलाकर भारत में सचमुच वह ‘अवसर’ है, जिसके बहाने एक तरफ अंबानी-अदानी जैसे खरबपति भारत को लूटेंगे तो दूसरी और भारत का औसत नागरिक भय, बीमारी और लूट में ऐसे बरबाद होगा कि इतिहास याद रखेगा कि प्रकृति की ख़ता में भारत में यह देखने को मिला था कि भारत उस व्यवस्था का नाम है, जिसके खून में सहानुभूति, दया और संवेदना नहीं, बल्कि जिधर मौका मिले, जब भी मौका मिले तो मौकापरस्ती में लोगों को चूस डालो! ईश्वर करें वायरस की तलवार थामे जल्लादों की मौकापरस्ती में आप न मारे जाएं!

हरिशंकर व्यास
(लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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