स्वास्थ्य सेवा सुधर ही नहीं रही, मर रहे हैं बच्चे

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करीब ढाई साल पहले गोरखपुर के बीआरडी अस्पताल में बच्चों की बड़ी संख्या में हुई मौत ने पूरे देश को संकते में डाल दिया था। फिर भी पिछले साल पड़ोसी राज्य बिहार के मुजफरपुर में चमकी नामक बुखार ने सौ से भी ज्यादा बच्चों की जान ले ली। ऐसा नहीं कि यह खबर राष्ट्रीय मीडिया में न आई हो। इसे भी टीवी चैनलों ने जोर-शोर से उठाया। इसके बावजूद पिछले दिनों राजस्थान के कोटा और गुजरात के राजकोट स्थित अस्पतालों से सैकड़ों बच्चों की मौत की खबरें आईं। इस बार भी खबरें तो बनी हैं। अपनी-अपनी सुविधा के मुताबिक राजनीतिक दलों के नेताओं ने भी इसे उठाया है। कुछ कोटा के बच्चों पर चिंता जता रहे हैं तो कुछ और राजकोट की स्थिति को गंभीर बता रहे हैं। मगर सवाल यह है कि इन सबका हासिल क्या होगा। अगर गोरखपुर की घटना के बाद बिहार के अस्पताल में कोई खास सुधार नहीं आया और बिहार की घटना से राजस्थान और गुजरात के अस्पताल कोई सीख नहीं ले पाए तो फिर यह कैसे माना जाए इन दोनों राज्यों से आने वाली इन दुखदायी खबरों का देश की सरकारी स्वास्थ्य सेवा पर कोई असर होगा?

और अगर असर नहीं होना है तो फिर इस सारी हाय-तौबा का मतलब क्या बनता है? गौर करें तो मीडिया में इन मसलों पर दिख रहे शोर-शराबे में भी ऐसे संकेत पहचाने जा सकते हैं जो बहस के उसकी तार्किक परिणति तक न पहुंच पाने के लिए कुछ हद तक जिम्मेदार हैं। चाहे मामला गोरखपुर का हो या बिहार का या कोटा और राजकोट का- प्राय सभी मामलों में यह पैटर्न देखा जा सकता है कि सभी संबंधित पक्षों का जोर उस खास घटना पर होता है। वह कितनी कारुणिक है, कितनी अमानवीय है यह बताया जाता है और यह देखा जाता है कि किसके सिर पर जिम्मेदारी थोपी जाए। उस खास घटना के लिए किस तरह के हालात जिम्मेदार हैं? उन कारकों पर समय रहते काबू पाने में कौन सी बाधाएं रहीं? उन बाधाओं को दूर करने के क्या उपाय हो सकते हैं? वे उपाय क्यों नहीं अपनाए जा रहे? बहस ऐसे सवालों की ओर जाने से पहले ही कमजोर पड़ते हुए थम जाती है। दरअसल, मौतों की यह तस्वीर लोकतंत्र बहाली के सरकार सालों में हमारी कमाई और बनाई हुई व्यवस्था का हिस्सा है।

कहने को स्वास्थ्य क्षेत्र में सरकारी योजनाओं की कमी नहीं है। एक-एक करके अगर गिनें तो सुबह से शाम हो जाएगी। फिट इंडिया, प्रधान मंत्री नेशनल न्युट्रिशन मिशन, प्रधानमंत्री जन औषधि योजना, नेशनल हेल्थ प्रॉटेक्शन स्कीम और प्रधानमंत्री सुरक्षित मातृत्व अभियान के अलावा अस्सी स्वास्थ्य योजनाएं इस वक्त लागू हैं। पर, सचाई यह है कि इन योजनाओं में पारदर्शिता ना के बराबर है। इन पर कितना और कैसा अमल होता है उसकी अलग से जांच कराए जाने की जरूरत तो समय-समय पर सामने आने वाली ऐसी त्रासद घटनाएं खुद ही स्पष्ट कर देती हैं। मौजूदा मामलों में भी जांच- पड़ताल की औपचारिकता तो शुरू हो गई है, लेकिन सांप निकल जाने के बाद लकीर पीटने की इस प्रक्रिया से कुछ हासिल होने की उम्मीद नहीं की जा सकती सिवाय इसके कि लोगों को यह घटना भूलने में थोड़ी आसानी होगी।

सच्चाई यह है कि अपवादों को छोड़ दिया जाए तो सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का पूरे देश में भा बैठ चुका है। इस बात की चिंता न तो केंद्र सरकार को है और न ही राज्य सरकारों को। यही वजह है कि इनमें से कोई भी बजट में सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च बढ़ाने की जरूरत नहीं समझती। लिहाजा तकरीबन सभी राज्यों में सरकारी अस्पताल डॉक्टरों, नर्सों और दवाओं की कमी से जूझ रहे हैं। बाकी अव्यवस्थाएं, अनिश्चितताएं और अनियमितताएं हालात को बदतर बनाने में अहम भूमिका निभाती हैं। समझना होगा कि मरीजों के लिए बीमा पॉलिसी लाने वाली योजनाएं बीमा कंपनियों और निजी अस्पतालों की कमाई बढ़ाने में भले मददगार हों, सरकारी स्वास्थ्य सेवा को बेहतर नहीं बना सकतीं।

रमेश ठाकुर
(लेखक पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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