सोनिया की उम्मीद

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सियासत में भी कई बार उम्मीद संघर्ष की खलिश को महसूस नहीं होने देती। कहावत भी है उम्मीद पर दुनिया कामय है। देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस की उम्मीग भी कुछ इसी तरह की है। पार्टी की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी को लगता है कि 2019 के चुनाव में मोदी सरकार की उम्मीद की गुब्बारा इसी तरह फूटेगा जिस तरह 2004 में अटल सरकार का फूटा था। तब इंडिया शाइनिंग का नारा सब तरफ था। अटल बिहारी वाजपेयी के दोबारा सत्ता में आने की चर्चा चल पड़ी थी, लेकिन कांग्रेस से 5 सीटे कम क्या मिली भाजपा की उम्मीद धरी की धरी रह गई। सोनिया गांधी की अगुवाई में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के जवाब में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन वजूद में आया और इस छतरी के तले 2004 से लेकर 2014 तक दो टर्म सरकार चली। जिस तरह मोदी सरकार के इर्द-गिर्द अजेयता का आभामंडल खड़ा किया जा रहा है, उससे कांग्रेस की शीर्ष नेत्री को लगता है कि भाजपा के आत्मविश्वास से उनकी पार्टी के लिए वासपी की कोई राह निकल सकती है।

शायद इसीलिए उन्होंने नरेन्द्र मोदी को आगाह किया और 2004 के अटल सरकार के समय क्या हुआ था, उसकी याद दिलाई। हालांकि कांग्रेस नेत्री यह बात कई बार अलग-अलग मौकों पर कह चुकी है। पर यूपी के रायबरेली संसदीय क्षेत्र में नामांकन के वक्त इतिहास का पूनर्वास करते हुए अपने लिए उम्मीद पालना बेवजह तो नहीं हैं राष्ट्रवाद के नाम पर चुनावी जीत के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक चुकी मोदी-शाह की जोड़ी जिस तरह साम्प्रदायिकता को हवा दे रही है। उससे भाजपा के खिलाफ स्वतः ही एक ब्लॉक खड़ा हो रहा है जो एकजुट होने पर हवा का रुख भी बदल सकता है। शायद मोदी के विरोध में तैयार हो रहे जनमत पर कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष की जनर है। इलिए 2004 की घटना को जब-तब उल्लेख किया जा रहा है। यह सच है कि जिन चीजों से आम लोगों का वास्ता होता है यदि उसमें कोई कमी रह जाती है तब बाकी सारी बाते बेमतलब हो जाती है।

रोजगार का मसला कुछ ऐसा ही है। बढ़ती आबादी और खत्म होते रोजगार के अवसरों का नतीजा है कि पढ़ा-लिखा युवा अधीर हो रहा है। लिहाजा इस अधीरता का लाभ मोदी विरोधी दलों को हो सकता है। बीते साढ़े चार दशकों में सबसे ज्यादा बेरोजगारी मौजूदा दौर में है जबकि मुद्रा लोन स्टार्टअप इंडिया जैसी योजनाओं की कामयाबी आंकड़ो में है। खेती किसानी नीतिगत अभाव के चलते युवाओं में उत्साह नहीं पैदा करती। लोग छोटी-मोटी नौकरी के लिए शहरों में हाथ-पांव मारते है। उत्पादन का क्षेत्र पहले से ही बड़ा नहीं रहा। सेवा क्षेत्र का विस्तार भी घरेलू और वैदेशिक कारणों से प्रभावित हुआ है। इसके इस झेत्र में भी सेवा शर्तों के बदलते स्वरूप से आकर्षण कम हुआ है। जहां तक दासता का सावल है तो उस मोर्चे पर भी हमारी मौजूदा शिक्षा व्यवस्था फेल रही है।

ऐसे अनुत्साहित वातावरण में उपलब्धियों के गान से भिन्नाये युवाओं पर कांग्रेस की नजर है। इसीलिए न्याय के रूप में उम्मीदों को एक नई पहेली युवा मतदाताओं के सामने है। हो सकता है वर्तमान से असंतुष्ट यह जमात भविष्य के लिए विकल्प के तैर पर मोदी विरोधियों की तरफ देखने लगे तो यह मानिये मंजर दूसरा हो सकात है। इस लिहाज से कांग्रेस खुद के लिए अनुकूलताअनुभव करती है तो यह बेवजह नहीं है, लेकिन इसके लिए भी एक पूर्व निर्धारित तैयारी की आवश्यकता होती है, जिसका निश्चित तौर पर अभाव है। नेतृत्व के नाम पर चेहरा ना सही, लेकिन एक महागठबंधन जैसी समझदारी संसदीय चुनाव में दिखनी चाहिए थी। इससे विकल्प चाहने वालों के लिए भी सुविधा रहती। पर एक दूसरे से भिड़ने के साथ ही जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल गैर भाजपाई दल करते दिखाई देते है। उससे उम्मीद का कमजोर पड़ना तय है। फिर भी कांग्रेस इस उम्मीद में है कि 2004 के नतीजे दोहराये जा सकते हैं तो इसे पार्टी के लिए निश्चित तौर पर एक अच्छी राजनीति कहेंगे लेकिन चुनाव में यह कितना कारगर होगा यह समय जाने।

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