53 साल पहले बाला साहब ठाकरे ने शिवसेना की स्थापना करते वक़्त भले ही यह नहीं सोचा होगा कि एक दिन आएगा कि ठाकरे-परिवार का सदस्य चुनावी राजनीति में उतर कर महाराष्ट्र की विधानसभा में पहुंचेगा और राज्य में शिवसेना की सरकार कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की मदद से बनेगी, मगर अगर आज बाल ठाकरे होते तो वे भी इन दोनों क़दमों की ताईद कर रहे होते। वे होते तो, मुझे लगता है कि, भारतीय जनता पार्टी से शिवसेना ने अपना नाता और भी बहुत पहले तोड़ लिया होता। इसलिए आज जो भी हो रहा है, उसमें देश के लिए भी अच्छे संकेत छिपे हैं, महाराष्ट्र के लिए भी सुखद दिनों की दस्तक सुनाई दे रही है और शिवसेना की डालियों पर भी नई और सकारात्मक राजनीतिक कोपलें फूटने के आसार साफ़ हैं।
शिवसेना की अगुआई में पहले ढाई साल और राकांपा के नेतृत्व में अगले ढाई साल अगर महाराष्ट्र की सरकार ने पार कर लिए तो आप यक़ीन जानिए कि भारत के सियासी नक्शे का रंग लोकसभा के अगले चुनाव आते-आते इस क़दर बदल चुका होगा कि अपनी आंखें ज़ोर-ज़ोर से मसलने के बावजूद नरेंद्र भाई मोदी और अमित भाई शाह को विश्वास ही नहीं होगा कि यह हो क्या गया है? न्यूनतम साझा कार्यक्रम पर अमल में अगर ढाई बरस के दूसरे चरण के दौरान कोई विध्न-बाधाएं नहीं आईं तो, बावजूद अपनी पुरानी मान्यताओं और परिपाटियों के, शिवसेना सर्वसमावेशी राजनीति की मुख्य-धारा का पूरी तरह हिस्सा बन चुकी होगी। उसके हिंदू चेहरे को बदसूरत बनाने वाले मुहांसे और फुंसियां गायब हो चुकी होंगी और कट्टरता के विलयन का लेप उसकी शक़्ल इतनी ख़ूबसूरत तो बना ही चुका होगा कि तालियां बटोरने के लिए उसे किसी संकुचित दड़बे की ज़रूरत न रहे।
बाल ठाकरे से चल कर उद्धव ठाकरे तक पहुंची शिवसेना को अब दरअसल आदित्य ठाकरे के लिए तैयार होना है। इसके लिए उसका रूपांतरण ज़रूरी है। परिस्थितियों ने शिवसेना को सही समय पर यह मौक़ा दे दिया है। अगर वह भाजपा से अलग नहीं होती तो उसका स्वायत्त भविष्य कुहासे से घिरता जाता। ऐसे में एक दिन आता कि भाजपा उसके ज़मीनी संगठन को अपने में समाहित कर चुकी होती और आदित्य अपने पिता उद्धव के साथ अपने राजनीतिक दल का नाम-पट्ट भर लिए खड़े रह जाते। शिवसेना को महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के हश्र से बचाने के इस ईश्वर-प्रदत्त अवसर को लपक कर ठाकरे-परिवार ने बुद्धिमानी का काम किया है। अब अगर वह चाहे तो अपनी बावड़ी से निकल कर अरब सागर की लहरों पर भी चप्पू आज़मा सकती है।
जिन्हें डर है कि शिवसेना की संगत में कांग्रेस का पुण्य क्षरित हो जाएगा, मैं उन्हें ‘चंदन विष व्यापत नहीं’ कंठस्थ करने की सलाह दूंगा। कांग्रेस और राकांपा की गरमाहट से जितना पिघलना है, शिवसेना को ही पिघलना है। न्यूनतम साझा कार्यक्रम की आंच से शिवसेना के घनघोर हिंदुत्व-वाद की ही भाप उड़ेगी। उसकी सोहबत से कांग्रेस और राकांपा के चेहरों पर कोई झांईं नहीं पड़ने वाली। कांग्रेस ने 134 साल जिन सियासी उसूलों की घुड़सवारी की है, उन पर शिवसेना के अस्तबल की धूल जमने लगे, मुमक़िन नहीं है। राकांपा को भी अब अजित पवार और उनसे भी ज़्यादा सुप्रिया सुले के लिए तैयार होना है। इसलिए उसका पानी भी ‘जिसमें मिला दो, लगे उस जैसा’ नहीं होने वाला। शरद पवार के हाथों तैयार घुट्टी जिन्होंने पी है, उनकी बुनियाद इतनी भी ढुलमुल नहीं हो सकती।
महाराष्ट्र-प्रसंग में भाजपा की भीतरी खदबदाहट को ले कर जितने मुंह उतनी बातें हो रही हैं। अगर उनमें रत्ती भर भी सच्चाई है तो समझ लीजिए कि वह तेज़ी से अपने उपसंहार की तरफ़ बढ़ रही है। विधानसभा के चुनाव नतीजे आने के बाद चौकन्ना करने वाल तीन बातें सामने आई हैं। एक, अमित शाह काफी वक़्त से देवेंद्र फडनवीस की नरेंद्र मोदी से सीधी नज़दीकी को लेकर असहज थे। इस चक्कर में देश का एकमात्र ब्राह्मण मुख्यमंत्री लपेटे में आ गया। केंद्र की भाजपा-सरकार में बैठे दूसरे ब्राह्मण नेता नितिन गड़करी को पहले ही किनारे लगा जा चुका है। दो, शिवसेना के साथ ढाई-ढाई साल सत्ता के बंटवारे का वादा नरेंद्र मोदी से छिपाया गया। तीन, अपने सहयोगी दलों को एक-एक कर 2024 तक पूरी तरह लील जाने के संघ-कुनबे की योजना पर अमल हो रहा है।
भाजपा के आधा दर्जन सहयोगी दल पिछले दिनों उससे अलग हो चुके हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र भाई की ईवीएम-फाड़ू जीत के बाद ऐसा होना मामूली बात नहीं है। जब अच्छे-अच्छे मोषा-लट्ठ के सामने औंधे पड़े हों, तब सहयोगी दल इस तरह ऐंठने लगें तो इसका मतलब है कि मौसम बदल रहा है। पांच साल जिनकी ज़ुबानों पर पहरा था, ऐसा नहीं है कि छठे साल वह पहरा हट गया है। पहरा तो अब भी वैसा ही है, मगर ज़ुबानें बत्तीस दांतों की कू्ररता के बावजूद बोलने की हिम्मत कर रही हैं। इसी दिन का तो भारतीय जनतंत्र इंतज़ार कर रहा था। वसंत जब आने को होता है तो पेड़-पौधे नए पत्ते धारण करने लगते हैं। खेतों में सरसों के पीले फूल लहराने लगते हैं। पुराना सब झड़ने लगता है। क्या आपको नहीं लगता कि महाराष्ट्र-प्रसंग लोकतंत्र के नए श्रंगार का संकेत है?
आदिकवि का आदिश्लोक क्रोंच वध से जन्मा था। व्याध की क्रूरता से जन्मे करुणा मंत्र की शक्ति का ताप क्या कभी साधारण हो सकता है? राजा शिवि क्या अपने शरीर के अंग काट कर बाज़ को यूं ही देने लगे थे? कालिदास के रघंवुशम में राजा दिलीप ने नंदिनी गाय को बचाने के लिए ख़ुद को समर्पित क्यों कर दिया था? समाज है तो राजनीति है। राजनीति समाज के लिए है। समाज राजनीति के लिए नहीं। इसलिए जब-जब दूषित राजनीति समाज की संरचना को ठेल कर उस दीवार तक ले जाती है, जहां से और पीछे नहीं जाया जा सकता तो समाज के दृश्य-अदृश्य दबाव राजनीति को ख़ुद-ब-ख़ुद समायोजित करने लगते हैं। विश्व-राजनीति में भी हमने ऐसी मिसालें देखी हैं और भारतीय राजनीति में भी। अभी आपको सुनने में यह अजीब लगेगा, लेकिन महाराष्ट्र का प्रयोग इसी सियासी बदलाव की शुरुआत है।
इसलिए हम प्रार्थना करें कि यह प्रयोग सफल हो। शिवसेना को आगे की सकारात्मक राजनीति के लिहाज़ से ख़ुद को ढालने का मौक़ा देने में किसी को कंजूसी नहीं करनी चाहिए। अगर उसका हृदय-परिवर्तन हो रहा है तो उसे घनघोर हिंदुत्व के अपने नुकीले हथियार समावेशी जनतंत्र के चरणों में समर्पित करने का मौक़ा ज़रूर मिलना चाहिए। मुझे लगता है कि भाजपा से अपने तीन दशक पुराने ताल्लुक़ की डोर शिवसेना ने सिर्फ़ इसलिए नहीं तोड़ी है कि सत्ता की घोड़ी पर बैठने के लिए उसकी लार टपक रही है। इससे भी ज़्यादा यह आहिस्ता-आहिस्ता भीतर इकट्ठे हो गए दर्द का प्रतिकार है। अगर ऐसा न होता तो शिवसेना कभी भी कांग्रेस का साथ लेने को राज़ी नहीं होती। आख़िर कांग्रेस से ज़्यादा यह उसके वैचारिक जीवन-मरण का सवाल है। सो, बिना दूर की सोचे, महज़ आज की हुकूमत में हिस्सेदारी के लिए शिवसेना ने यह नहीं किया है। इसीलिए तो भाजपा के भीतर हवाइयां उड़ रही हैं। रास्ता जो बन गया है, उस पर कौन कब चल पड़ेगा, क्या मालूम!
पंकज शर्मा
(लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)