सहचर-पूंजीवाद का मोर-पंखी मीडिया

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मोर-पंखी मीडिया को अपने पांवों की तरफ़ संजीदगी से देखने का अगर यह भी वक़्त नहीं है तो समझ लीजिए कि हमारे लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को कलियुगी काले-सूराख़ का गुरुत्वाकर्षण-बल इस क़दर लील चुका है कि वेद व्यास ख़ुद भी अवतार ले लें तो उसे उबार नहीं सकते। मीडिया के खंभों का क्षरण आज से नहीं हो रहा है। मगर इन सात वर्षों में उसके भुरभुरेपन की दर जितनी तेज़ हुई है, पहले के किसी भी सात वर्षीय काल-खंड में नहीं हुई।

यह छोटे परदे पर विक्षिप्तों की तरह हाथ-पैर फेंकते, छाती पीटते, आंय-बांय-शांय बकते और सूरमा-मर्ज़ की अपनी निश्चेत-अवस्था में डूबे बहस-सूत्रधारों का युग है। उनकी अक़्ल का सैलाब उनके छोटे मस्तिष्कों में समा नहीं रहा है; छलक-छलक कर नहीं, उफ़न-उफ़न कर, बाहर छलांगे लगा रहा है; और, वे भारतवासियों के भाग्य-विधाता का स्व-नियुक्तिपत्र अपने गले में लटका कर धमा-चौकड़ी मचा रहे हैं। यह मुद्रित-मीडिया के कंकाली-करण का दौर है। अपने ज़िस्मों पर नकली चर्बी ओढ़े वह इतने बरसों से ख़ुद को जिस अखाड़े का पहलवान समझ रहा था, उसकी मिट्टी ने ही उसका ग़ुरूर मिट्टी में मिला दिया है।

समाचार चैनलों की टेलीविज़न रेटिंग प्वाइंट की बाज़ारू होड़ ने ऐसे-ऐसों से, अधनंगा क्या, तक़रीबन पूरा-का-पूरा नंगा, नाच करवा दिया है, जिन्हें हम अपने युग का देवी-देवता भले ही नहीं मानते थे, मगर उन्हें पिशाच-पिशाचिनी भी नहीं समझते थे। आज जो छोटे परदों पर पत्रकारीय मुखौटा लगा कर नमूदार हो रहे हैं, उन बेचारों को तो फिर भी इसलिए माफ़ कर देने को आपका मन हो सकता है कि वे ख़ुद भी शायद अपनी ग्राहक-खोजू भूमिका पर भीतर-ही-भीतर लजाते हों, मगर उनकी नियंत्रक-डोरियों वाले हाथों की कुरूपता तो आपको भी भीतर तक घिन से भर देगी।

हज़ार-दो-हजार प्रतियां छाप कर अपनी प्रसार संख्या पचासों हज़ार बताने का अखबारी धंधा कोई आज से नहीं चल रहा है। मेज़ के नीचे से दिए जाने वाले लिफाफों के ज़रिए झूठी प्रसार संख्या के बूते ऊंची विज्ञापन दरें हासिल करने वाले अख़बारों से हम यह उम्मीद लगाए बैठे थे कि वे जनतंत्र की रक्षा की लड़ाई में हमारा साथ देंगे! हमारी इस मासूमियत पर ख़ुदा मर न गया, यही क्या कम है? बड़े-मंझले-छोटे प्रकाशनों के कर्ताधर्ताओं के काले-पीले धंधों की सूची जारी हो जाए तो शर्म के मारे हम जा कर किस पोखर में छलांग लगाएंगे? पढ़ते थे कि जब तोप मुक़ाबिल हो तो अख़बार निकालो। आज मन करता है कि जब अख़बार मुक़ाबिल हो तो तोप निकालो। आज अख़बार का सबसे सार्थक और पवित्र उपयोग सिर्फ़ यह रह गया है कि आप उस पर रख कर सेंव-परमल, कचौरी-समोसा या गराड़ू खा लें।

अब मुझे बताइए कि चौथे स्तंभ की इस बदहाली के लिए क्या हमारे मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी क़ुसूरवार हैं? जी हां, हैं। लेकिन आधे। इसलिए कि उनकी रची व्यवस्था ने मीडिया को फुसलाने, ललचाने, धमकाने और डराने का खुला खेल खेला। लेकिन यह खेल उन्होंने घूंघट की ओट से नहीं, फर्रुखाबादी मीनार पर चढ़ कर खेला। आज वे शहंशाह हैं और चूंकि उन्हें शहंशाही उसूलों की पाकीज़गी से कोई लेना-देना नहीं है, सो, उन्हें यह हक़ है कि वे अपना खेल जैसे चाहें, खेलें। मगर क्या बाकी की आधी ज़िम्मेदारी उनकी नहीं है, जो नरेंद्र भाई के इस मिनी-मैराथन में अपने चड्डी-बनियान पहन कर शामिल हो गए और एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में विदूषक-योनि को प्राप्त हो गए? नरेंद्र भाई के पेट में भी इन लार-टपकाऊ होड़ियों-दौड़ियों की शक़्लें देख कर अकेले में ठहाका लगाते-लगाते बल पड़ जाते होंगे। मुझे लगता है कि कभी-कभार वे अपना माथा भी पीटते होंगे।

बचपन में अपने गांव में मैं ने कई स्वांग-टोलियों के आयोजन देखे हैं। अब तो लोगों को यह भी नहीं मालूम कि लोक-मनोरंजन की यह विधा थी कैसी? स्वांग के ज़रिए कथा-मंचन करने भांड आया करते थे। तब के भांड अगर सुन लें कि भर्त्सना-भाव से भरे लोग बहुत-से टीवी एंकर को आजकल ‘भांड’ संबोधित करने लगे हैं तो, सच मानिए, या तो वे ऐसा कहने वाले को गोली मार देंगे या ख़ुद को गोली मार लेंगे। हमारे जिन पत्रकारीय-महामनाओं ने ‘भांड’ जैसे आदरणीय शब्द तक को पतन-प्रतीक बना डाला है, उनका मुंह काला करने के लिए आप और कब तक इंतज़ार करेंगे? अवध जैसे राजदरबारों में शाही परिवारों का मनोरंजन करने वाले भांड भी ऐसे भांड तो नहीं थे कि जमूरागिरी करने पर उतारू हो जाएं। सच को घुमा-फिरा कर वे भी कह ही डालते थे।

दो महीने से दो तिहाई टीवी और मुद्रित मीडिया ‘संभावनाओं से भरे’ एक युवा फ़िल्म अभिनेता की आत्महत्या-हत्या की पेचीदगियां सुलझाने में लगा हुआ है। कोई अपनी जान दे दे, त्रासद है, दुःखद है। कोई किसी की जान ले ले, पाप है, गुनाह है। ऐसे किसी भी मामले में लीपापोती करने वालों का पर्दा ज़रूर फ़ाश हो। सच उजागर करने के ऐसे पावन कर्तव्यबोध से बंधे क़लमकारों और छोटे परदे के सूत्रधारों का हम चरणामृत-पान करें। मगर क्या हम यह न पूछें कि चुडैल-बेताल तलाश रहे ये मीडिया नायक-नायिकाएं हमें हमारी अर्थव्यवस्था, बेरोजगारी, सरहदी मुसीबतों और महामारी के बहाने हो रही डकैती के बारे में क्यों नहीं बताते? उनकी बेताब-पूंछ ऐसे मौक़ों पर किन टांगों के बीच दब जाती है? कोड़े बरसाती उनकी ज़ुबानें ऐसे में किस खोह में जा कर लपलपाने लगती हैं?

मीडिया के एक बड़े हिस्से की सलामी-शस्त्र मुद्रा ने चौथे स्तंभ की फुनगी पर लहराते ध्वज को उसके शव-वस्त्र में तब्दील कर दिया है। ऐसे में यह रोना क्या रोना कि हाय-हाय हम कहां जा रहे हैं? ऐसे में नरेंद्र भाई के नाम पर छाती पीटने से क्या फ़ायदा? ठुमके आप लगाएं और ठीकरा नरेंद्र भाई पर फोड़ें, यह क्या बात हुई? पिलपिली स्याही आग उगलने लगे, इसकी ठेकेदारी नरेंद्र भाई क्यों संभालें? छोटे परदे की लिजलिजी नृत्य-सभा को सार्थक विमर्श का मंच बनाने के यज्ञ का यजमान नरेंद्र भाई क्यों बनें? वे हिंदू नहीं, हिंदुत्व-आधारित राष्ट्र की स्थापना के लिए आए हैं। वे राम नहीं, राम मंदिर-मुखी राज्य की स्थापना के लिए आए हैं। वे अपना काम पूरे मन से कर रहे हैं। अगर आप अपना काम पूरे मन से न करें तो वे क्या करें?

सहचर-पूंजीवाद को नरेंद्र भाई ने नई ऊंचाइयों पर पहुंचा दिया है। राज्य के संसाधन अब राज्य के नहीं रहे। बचे-खुचे भी बंबई की अल्टामाउंट रोड पर बने एंटीलिया और अहमदाबाद के सरखेज-गांधी नगर हाइवे पर बने शांतिवन में तिरोहित किए जा रहे हैं। प्राकृतिक संसाधन, बड़ा-छोटा सेवा क्षेत्र, दूरसंचार, विमानन जगत, जल-थल परिवहन, बंदरगाह, स्वास्थ्य-शिक्षा क्षेत्र, मीडिया और दूसरे संप्रेषण माध्यम, मनोरंजन जगत, पर्यटन व्यवसाय, देसी-परदेसी व्यापार, निर्माण, उद्योग, खेती-बाड़ी, थोक-खेरची कारोबार, सब दो आंगनों और उनसे जुड़े पांच-सात उप-प्रांगणों में सिमटते जा रहे हैं।

आपसे जो बनता हो, कर लें। आप जिस दास-वृत्ति का डीऑक्सीराइबोन्यूक्लिक अम्ल अपनी नाभि में ले कर जन्मे हैं, उसका कोई नरेंद्र भाई क्या करे? आपकी नियति अगर मिमियाने की है तो नरेंद्र भाई उसे दहाड़ में कैसे बदलें? यह तो आप को ही करना होगा। आप करें तो आपका भला। न करें तो नरेंद्र भाई का भला। तो नरेंद्र भाई अपना भला सोचें कि आपका? जब आप ख़ुद ही अपने बारे में नहीं सोच रहे तो किसी को क्या पड़ी है कि आपके बारे में सोचे? आप अपने बारे में सोचने लगें तो भी कोई आपके बारे में यूं ही थोड़े ही सोचने लगेगा। इसलिए पहले तो आप समय रहते यह सोचें कि आप अपने बारे में सोचना शुरू कब करेंगे? तब तक के लिए फोकट का रोना-धोना बंद कीजिए।

पंकज शर्मा
(लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

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