सवालों से मुंह नहीं मोड़ेगा बिहार

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कोरोना महामारी के प्रचंड रूप पकड़ने के दौर में चुनावी मुहिम छेड़ने के नैतिक सवाल को भी छोड़ा नहीं जा सकता, पर केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह द्वारा बिहार विधानसभा चुनाव की झमाझम शुरुआत के साथ जो राजनीतिक और प्रशासनिक गतिविधियां शुरू हो गई हैं, उनकी अनदेखी मुश्किल है। इसकी दो प्रमुख वजहें हैं। पहली तो सरकारों के महामारी की तरफ ध्यान देने के बजाय चुनाव की तैयारी में लगना है। केंद्र का तो खास पता नहीं, पर खबर है कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कोरोना से जुड़ी नियमित समीक्षा वाली अपनी शाम की बैठक स्थगित कर दी है। खुद शाह भी बिहार के बाद ओडिशा और बंगाल में वर्चुअल रैली कर चुके हैं। दूसरी वजह है बिहार विधानसभा चुनाव की राजनीतिक अहमियत। पिछले काफी समय से बीजेपी का विधानसभा चुनावों का प्रदर्शन लोकसभा के मुकाबले काफी खराब रहा है। ऐसे में पक्ष और प्रतिपक्ष चुनावी लड़ाई में उतरें और शुरुआत इतना पहले हो तो सबका ध्यान बिहार पर जाएगा ही। लेकिन इन सबसे बढ़कर बीजेपी की रणनीति चौंकाती है।

बिहार में वह आज भी अकेले लड़ने को तैयार नहीं है, नीतीश कुमार के सहारे ही राज्य पर अपनी पकड़ बनाए रखना चाहती है। पिछले चुनाव के तत्काल बाद पाला बदलकर बीजेपी की तरफ आना अगर नीतीश के लिए एक झेंप का विषय था तो बीजेपी के लिए नीतीश को गोद लेना दोहरी पराजय स्वीकार करना था। चुनाव में हुई पिटाई के बाद नैतिक हार। पर इस बार भी शाह जी ने जो काम सबसे पहले किया, वह था नीतीश कुमार के बारे में उठ रहे या एनडीए के एकजुट रहने पर जाहिर किए जा रहे शक को दूर करना। एलजेपी के चिराग पासवान और बीजेपी के कई महत्वाकांक्षी नेताओं ने जो बयान और सिगनल दिए थे, उनसे ही यह संदेह पैदा हुआ था। अगर नेतृत्व का सवाल इतनी शुरुआत से स्पष्ट है तो तय मानिए कि बीजेपी नेतृत्व सीटों के तालमेल और बंटवारे के सवाल को ज्यादा बढ़ने नहीं देगा। अब कोई यह सवाल उठाना चाहे तो उठाए कि जो अमित शाह पिछली बार बिहार में बुरी तरह पिट चुके हैं, बीजेपी उन्हें ही फिर क्यों आगे कर रही है। पिछली बार बीच चुनाव में बीजेपी को पूरी रणनीति बदलनी पड़ी थी और शाह के पाकिस्तान में पटाखे छूटने जैसे बयानों से भी बीजेपी को नुकसान हुआ था। दूसरे, बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा के लिए बिहार अपने घर जैसा ही है, सो उन्हें खुद आगे आना चाहिए था।

लेकिन शाह की तरह का संगठनकर्ता बीजेपी में ही नहीं, बिहार में भी दूसरा नहीं दिखता। उन्होंने शुरू से ही सभी 243 विधानसभा सीटों और 72,000 बूथों की तैयारी शुरू करा दी थी। लोग भले चीनी बायकॉट के आह्वान बीच चीन निर्मित एलईडी सेट लगवाने का सवाल उठाएं, पर इस कोरोना और लॉकडाउन के समय में हर जगह यह इंतजाम करके शो कर लेना कम बड़ी बात नहीं है। तो एक तरफ सारे साधनों से संपन्न कार्यकर्ताओं की फौज, कुशल मीडिया प्रबंधन और सीटों के बंटवारे में कोई दिक्कत न आने देने को तत्पर नेतृत्व है, दूसरी तरफ बंटा, बिखरा, आपसी फूट और अनिश्चय का शिकार, संसाधनहीन और राजनीतिक रूप से गायब विपक्ष है। विपक्षी गठबंधन का क्या स्वरूप होगा, कौन नेता होगा और मुद्दे क्या होंगे, जैसे सवाल तो हैं ही, लोकसभा चुनाव वाली गलतियां (घटिया उम्मीदवार, सिर्फ जाति/मजहब का हिसाब और टिकटों की खुलेआम बिक्री) नहीं दोहराई जाएंगी, इसका भरोसा दिलाने वाले नेतृत्व का भी अभाव है। विपक्ष के नेता और खुद को मुख्यमंत्री पद का दावेदार बताने वाले तेजस्वी यादव ने अभी तक अपनी नेतृत्व क्षमता नहीं दिखाई है। उनको अभी बहुत कुछ करना और सीखना है। कांग्रेस के हिसाब से तो लगता ही नहीं कि बिहार में चुनाव होने हैं।

और साधन से एकदम कमजोर तथा कुछ ही हिस्सों में प्रभावी सीपीआई (एमएल) को छोड़ दें तो यह किसी को भी एहसास नहीं है कि बिहार में दोनों बड़ी कम्युनिस्ट पार्टियों का अभी हाल तक बड़ा आधार था। पर न तो बिहार में राजनीतिक मुद्दों का अभाव है, न मुल्क में। शाह जी अगर उलटी गंगा बहाते हुए कोरोना पर विपक्ष से क्या किया जैसे सवाल पूछ रहे हैं तो पूछें, लोगों को तो इस सवाल पर नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार से ही सवाल पूछने हैं। बिहार में प्रवासी मजदूरों की दुर्गति और कोटा में फंसे बच्चों को लाने के सवाल पर राज्य और केंद्र सरकार के व्यवहार का सवाल चुनाव में जरूर उठेगा। शाह ने एकतरफा संवाद में बिहार को सवा लाख करोड़ का पैकेज मिलने की गिनती करा दी, लेकिन इससे ही बिहारी लोग नहीं मान लेंगे कि वे पांच साल में इतनी रकम पा चुके हैं। नीतीश द्वारा पाला बदलने के सवाल पर भी जनमत जाहिर होगा क्योंकि तब के बाद यही मौका है।

डबल इंजन की सरकार का काम भी लोग पूछेंगे ही। जाहिर है, सवाल काफी हैं और शाह जी का समय से पूर्व मैदान में उतरना ऐसे सवालों को भांप कर ही हुआ है। लेकिन बिहार है तो सिर्फ ऐसे सवालों पर चुनाव संभव नहीं है। आज भले ही कोरोना ने मुद्दे ढक दिए हैं, पर यह तय मानिए कि चुनाव हुए तो वे मुद्दे भी आएंगे ही। ये मुद्दे जाति-धर्म की राजनीति के हैं, ये नीतीश कुमार के सुशासन/लालू यादव के कुशासन के हैं, मोदी और शाह के अच्छे दिन के हैं, नोटबंदी और लॉकडाउन जैसे फैसले लेने के विवेक के हैं। भले नीतीश कुमार का विकल्प न दिख रहा हो, पर लोग उनसे बुरी तरह ऊबे हैं, लालू परिवार से ऊबे हैं, सामाजिक न्याय के नाम पर हुई बांझ क्रांति से ऊबे हैं। ये सवाल कोरोना के पहले उठने लगे थे। अभी शाह जी का बिगुल बजा है, जरा लोगों का भी बिगुल बजने दीजिए। अभी वे कोरोना में फंसे हैं।

अरविंद मोहन
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं )

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