सबने तोड़ी आस : अफगानी औरतें हताश

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फिल्म डायरेक्टर अनुराग कश्यप ने अफगानिस्तान की सरकारी फिल्म कंपनी की पहली महिला महानिदेशक सहरा करीमी की एक अपील ट्वीट की है। सोशल मीडिया पर वायरल इस अपील में सहरा ने अपने मुल्क की दयनीय हालत की एक जिंदा तस्वीर पेश करते हुए दुनिया भर से मदद की गुहार लगाई है। सहरा लिखती हैं, ‘मैं आपको टूटे दिल और गहरी उम्मीद से लिख रही हूं कि आप मेरे प्यारे देशवासियों, खासकर फिल्मकारों को बचाने में साथ दें। हमारी मदद करें। हमारे पास बहुत कम समय है, शायद कुछ ही दिनों का। पिछले कुछ हफ्तों में तालिबान ने कई प्रांतों का नियंत्रण अपने हाथ में लिया है। उन्होंने हमारे लोगों को मारा है, कई बच्चों का अपहरण किया है, बच्चियों को बाल वधू बनाकर बेचा है, एक महिला को उसके कपड़ों के कारण मारा है, हमारे एक प्यारे कमीडियन को उन्होंने प्रताडि़त करने के बाद मार डाला है, हमारे कवियों को मारा है।’ सहरा की अपील सामने आई, चर्चा का विषय भी बनी लेकिन अफसोस कि देर हो चुकी है।

अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी अफगानियों के लिए, खासकर वहां की महिलाओं और लड़कियों के लिए एक आतंक और खौफ की शुरुआत है। पिछले 15-20 सालों में पढऩे, बाहर घूमने, राजनीति से लेकर प्रफेशनल फील्ड में अपना हुनर दिखाने का जो मौका उन्हें मिला था, अब वह छिनना शुरू हो गया है। डरी महिलाओं को लग रहा है कि वह दिन दूर नहीं जब वे फिर से घर की दीवारों में कैद होकर रह जाएंगी। यही वजह है कि काबुल हवाई अड्डे पर पिछले कई दिनों से जो लोग अपना वतन छोडऩे की जद्दोजहद कर रहे हैं, मर रहे हैं, उनमें ढेरों महिलाएं भी हैं। इसमें शक नहीं कि अफगानिस्तान में सहरा जैसी पढ़ी-लिखी शहरों में रहने वाली महिलाओं से लेकर गांवों की सामान्य महिलाएं तक अपने वजूद और आजादी के लिए तालिबानियों से टक्कर लेती रहीं। सैकड़ों की संख्या में अफगानी महिलाएं तालिबानी हुकूमत के खिलाफ अपनी जंग का ऐलान करती नजर आ रही थीं। हाथों में बंदूक, मुंह पर तालिबान विरोधी नारों को देखकर साफ लग रहा था कि वे तालिबानियों के खिलाफ आरपार की लड़ाई लडऩे को पूरी तरह से तैयार हैं।

इसी बीच अफगान सेना में 20 महिला कमांडों की नियुति ने तो मानो इन महिलाओं में एक नया हौसला भर दिया था। लेकिन मानवाधिकारों की दुहाई देने वालों से इनको पर्याप्त सहयोग नहीं मिला और लड़ाई हारने के बाद अब ये महिलाएं वापस गुमनामी और गुलामी के अंधेरों में धकेली जा रही हैं। महिलाओं के लिए बद से बदतर जगह बन चुका अफगानिस्तान आज से कुछ दशक पहले महिलाओं के लिए जन्नत से कम नहीं समझा जाता था। महिलाएं खुलकर आजादी से रहती थीं और हर वह काम करती थीं, जो वे करना चाहती थीं। लड़कियां मिनी स्कर्ट पहनकर स्कूल-कॉलेज में पढ़ाई करती थीं। अफगानिस्तान के फैशन शो की पूरे विश्व में चर्चा होती थी। आधुनिक से आधुनिक पहनावा अफगानिस्तान में नजर आने के बाद लंदन और पेरिस की शोभा बढ़ाता था। पढ़ाई-लिखाई, खेल-कूद, राजनीति के साथ बड़े-बड़े पदों पर विराजमान थीं अफगानी महिलाएं।

अफगानिस्तान में महिलाओं को वोट देने का अधिकार 1919 में मिला और इसी के आसपास यूके और यूएस जैसे देशों में महिलाओं को वोटिंग अधिकार मिला। अंदाजा लगा सकते हैं कि अफगान में महिलाओं का रुतबा आज के आधुनिक, विकसित देशों के बराबर ही था। 1919 में राजा बने अमानउल्ला खां और उनकी पत्नी सोराया ने हर वो काम किए जिससे महिलाओं को समानता, शिक्षा और हर क्षेत्र में आगे बढऩे का मौका मिला। आज तक बहुत से विकसित और विकासशील देशों में महिलाओं को राजनीति में सम्मानजनक स्थान नहीं मिला, लेकिन अफगानिस्तान में वर्षों पहले ही राजनीति में महिलाओं की 27 फीसदी सीट तय हो गई थी। एक वत था, जब अफगानिस्तान संसद में यूएस कांग्रेस से ज्यादा महिलाएं थीं। समय बताएगा कि अफगानिस्तान की महिलाएं अपनी आजादी की लड़ाई आगे किस तरह जारी रखती हैं। एक बात वे जरूर जान गई हैं कि आजाद होने के लिए बाहर वालों से उम्मीद करना बेकार है। यह लड़ाई उन्हें अपने बूते ही लडऩी और जीतनी है।

अनु जैन रोहतगी
(लेखिका स्तंभकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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